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________________ -दोहा १२५] परमात्मप्रकाशः २४१ ममलं त्यक्त्वा च भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ॥ १२४ ॥ अथ जीवहिंसादोषं दर्शयति मारिवि जीवहँ लक्खडा जं जिय पाउ करीसि । पुत्त-कलत्तहँ कारण तं तुहुँ एक्कु सहीसि ॥ १२५ ।। मारयित्वा जीवानां लक्षाणि यत् जीव पापं करिष्यसि । पुत्रकलत्राणां कारणेन तत् त्वं एकः सहिष्यसे ॥ १२५ ॥ मारिवि इत्यादि । मारिवि जीवहं लक्खडा रागादिविकल्परहितस्य स्वस्वभावनालक्षणस्य शुद्धचैतन्यप्राणस्य निश्चयेनाभ्यन्तरं वधं कृखा बहिर्भागे चानेकजीवलक्षाणाम् । केन हिंसोपकरणेन । पुत्तकलत्तहं कारणइं पुत्रकलत्रममखनिमित्तोत्पन्नदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षास्वरूपतीक्ष्णशस्त्रेण । जं जिय पाउ करीसि हे जीव यत्पापं करिष्यसि तं तुहं एक्कु सहीसि तत्पापफलं वं कर्ता नरकादिगतिष्वेकाकी सन् सहिष्यसे हि । अत्र रागाधभावो निश्चयेनाहिंसा भण्यते । कस्मात् । निश्चयशुद्धचैतन्यप्राणस्य रक्षाकारणखात्, रागाधुत्पत्तिस्तु निश्चयहिंसा । तदपि कस्मात् । निश्चयशुद्धमाणस्य हिंसाकारणात् । इति ज्ञाखा रागादिपरिणामरूपा निश्चयहिंसा ___ आगे जीवहिंसाका दोष दिखलाते हैं जीवानां लक्षाणि] लाखों जीवोंको [मारयित्वा] मारकर [जीव] हे जीव, [यत्] जो तू [पापं करिष्यति] पाप करता है, [पुत्रकलत्राणां] पुत्र स्त्री वगैरहके [कारणेन] कारण [तत् त्वं] उसके फलको तू [एक] अकेला [सहिष्यसे] सहेगा । भावार्थ-हे जीव, तू पुत्रादि कुटुम्बके लिये हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहादि अनेक प्रकारके पाप करता है, तथा अंतरंगमें रागादि विकल्परहित ज्ञानादि शुद्ध चैतन्य प्राणोंका घात करता है, अपने प्राण रागादिक मैलसे मैले करता है, और बाह्यमें अनेक जीवोंकी हिंसा करके अशुभ कर्मोंको उपार्जन करता है, उनका फल तू नरकादि गतिमें अकेला सहेगा । कुटुम्बके लोग कोई भी तेरे दुःखके बटानेवाले नहीं हैं, तू ही सहेगा । श्रीजिनशासनमें हिंसा दो तरहकी है-एक आत्मघात, दूसरी परघात । उनमेंसे जो मिथ्यात्व रागादिकके निमित्तसे देखे सुने भोगे हुए भोगोंकी वांछारूप जो तीक्ष्ण शस्त्र उससे अपने ज्ञानादि प्राणोंको हनना, वह निश्चयहिंसा है, रागादिककी उत्पत्ति वह निश्चय हिंसा है । क्योंकि इन विभावोंसे निज भाव घाते जाते हैं । ऐसा जानकर रागादि परिणामरूप निश्चयहिंसा त्यागना । यही निश्चयहिंसा आत्मघात है । और प्रमादके योगसे अविवेकी होकर एकेंद्रिय दोइंद्रिय तेइंद्रिय चौइंद्रिय पंचेद्रिय जीवोंका घात करना वह परघात है । जब इसने परजीवका घात विचारा, तब इसके परिणाम मलिन हुए, और भावोंकी मलिनता ही निश्चयहिंसा है, इसलिये परघातरूप हिंसा आत्मघातका कारण है । जो हिंसक जीव है, वह परजीवोंका घातकर अपना घात करता है । यह स्वदया परदयाका स्वरूप जानकर हिंसा सर्वथा त्यागना । हिंसाके समान अन्य पाप नहीं है । निश्चयहिंसाका स्वरूप सिद्धांतमें दूसरी जगह ऐसा कहा है जो रागादिकका अभाव वही शास्त्रमें अहिंसा कही है, और रागादिककी उत्पत्ति वही हिंसा है, ऐसा पर०२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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