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________________ २४० योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० २, दोहा १२४ 1 त्वात् कृत्रिमं विनश्वरम् । इत्थंभूतं दिट्टु दृष्टम् । कैः । जोइहिं परमज्ञानसंपन्नदिव्ययोगिभिः । क दृष्टम् । आगमि वीतरागसर्वज्ञमणीतपरमागमे इति । अत्रेदमध्रुवव्याख्यानं ज्ञात्वा ध्रुवे स्वशुद्धात्मस्वभावे स्थित्वा गृहादिपरद्रव्ये ममलं न कर्तव्यमिति भावार्थ: ।। १२३ ॥ अथ गृहपरिवारादिचिन्तया मोक्षो न लभ्यत इति निश्चिनोति मुक्खु ण पावहि जीव तुहुँ घरु परियणु चिंतंतु । तो वरि चितहि तर जि तर पावहि मोक्खु महंतु ॥ १२४ ॥ मोक्षं न प्राप्नोषि जीव गृहं परिजनं चिन्तयन् । ततः वरं चिन्तय तपः एव तपः प्राप्नोषि मोक्षं महान्तम् ॥ ९२४ ॥ मुक्खु इत्यादि । मुक्खु कर्ममलकलङ्करहित केवलज्ञानाद्यनन्तगुणसहितं मोक्षं ण पावहि न प्रामोषि न केवलं मोक्षं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयात्मकं मोक्षमार्गं च जीव हे मूढ जीव तुहुं त्वम् । किं कुर्वन् सन् । घरू परियणु चिंतंतु गृहपरिवारादिकं परद्रव्यं चिन्तयन् सन् तो ततः कारणात् वरि वरं किंतु चिंतहि चिन्तय ध्याय । किम् । तउ जि तउ तपस्तप एव विचिन्तय नान्यत् । तपश्चरणचिन्तनात् किं फलं भवति । पावहि मानोषि । कम् । सोक्खु पूर्वोक्तलक्षणं मोक्षम् । कथंभूतम् । महंतु तीर्थकरषरमदेवादिमहापुरुषैराश्रितत्वान्महान्तमिति । अत्र बहिर्द्रव्येच्छानिरोधेन वीतरागतात्त्विकानन्दपरमात्मरूपे निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा गृहादिहै । जो टाँकीसे गढा हुआ न हो बिना ही गढी पुरुषाकार अमूर्तिकमूर्ति है । ऐसे आत्मस्वरूपसे ये देहादिक भिन्न हैं, ऐसा सर्वज्ञकथित परमागममें परमज्ञानके धारी योगीश्वरोंने देखा हैं । यहाँपर पुत्र, मित्र, स्त्री, शरीर आदि सबको अनित्य जानकर नित्यानंदरूप निज शुद्धात्म स्वभावमें ठहरकर गृहादिक परद्रव्यमें ममता नहीं करना ॥ १२३॥ I आगे घर परिवारादिककी चिंतासे मोक्ष नहीं मिलता, ऐसा निश्चय करते हैं - [ जीव] हे जीव, [त्वं ] तू [ गृहं परिजनं ] घर परिवार वगैरहकी [ चिन्तयन् ] चिंता करता हुआ [ मोक्षं] मोक्ष [न प्राप्नोति ] कभी नहीं पा सकता, [ततः ] इसलिये [ वरं ] उत्तम [ तपः एव तपः ] तपका ही बारबार [चिंतय] चिंतवन कर, क्योंकि तपसे ही [ महांतं मोक्षं ] श्रेष्ठ मोक्षसुखको [ प्राप्नोषि ] पा सकेगा ।। भावार्थ–तू गृहादि परवस्तुओंका चिंतवन करता हुआ कर्मकलंक रहित केवलज्ञानादि अनंतगुण सहित मोक्षको नहीं पावेगा, और मोक्षका मार्ग जो निश्चयव्यवहार - रत्नत्रय उसको भी नहीं पावेगा । इन गृहादिके चिंतवनसे भव-वनमें भ्रमण करेगा । इसलिये इनका चिंतवन तू मत कर, लेकिन बारह प्रकारके तपका चिंतवन कर । इसीसे मोक्ष पायेगा । वह मोक्ष तीर्थंकर परमदेवाधिदेव महापुरुषोंसे आश्रित है, इसलिये सबसे उत्कृष्ट हैं । मोक्षके समान अन्य पदार्थ नहीं । यहाँ परमद्रव्यकी इच्छाको रोककर वीतराग परम आनन्दरूप जो परमात्मस्वरूप उसके ध्यानमें ठहरकर घर परिवारादिकका ममत्व छोडकर, एक केवल निजस्वरूपकी भावना करना यह तात्पर्य है । आत्मभावनाके सिवाय अन्य कुछ भी करने योग्य नहीं है | १२४ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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