SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 400
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - दोहा १२३ ] परमात्मप्रकाशः २३९ जोणि इत्यादि । जोणिलक्खई परिभमइ चतुरशीतियोनिलक्षाणि परिभ्रमति । कोऽसौ । अप्पा बहिरात्मा । किं कुर्वन् । दुक्खु सहंतु निजपरमात्मतत्त्वध्यानोत्पन्नवीतरागसदानन्दैकरूपाव्याकुलवलक्षणपारमार्थिक सुखाद्विलक्षणं शारीरमानसदुःखं सहमानः । कथंभूतः सन् । पुत्तकलत्तहिं मोहियउ निजपरमात्मभावनाप्रतिपक्षभूतैः पुत्रकलत्रैः मोहितः । किंपर्यन्तम् । जाव ण यावत्कालं न । किम् । णाणु ज्ञानम् । किं विशिष्टम् । महंतु महतो मोक्षलक्षणस्यार्थस्य साधकत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानं महदित्युच्यते । तेन कारणेन तदेव निरन्तरं भावनीयमित्यभिप्रायः ।। १२२ ॥ अथ हे जीव गृहपरिजनशरीरादिममत्वं मा कुर्विति संबोधयतिजीव म जाणहि अप्पणउँ घरु परियणु तणु इट्टु । कम्मायत्त कारिमउ आगमि जोइहि ँ दिछु ।। १२३ ।। जीव मा जानीहि आत्मीयं गृहं परिजनं तनुः इष्टम् । कर्मायत्तं कृत्रिमं आगमे योगिभिः दृष्टम् ॥ १२३ ॥ जीव इत्यादि । जीव म जाणहि हे जीव मा जानीहि अप्पणउं आत्मीयम् । किम् । घरु परियणु तणु इठु गृहं परिजनं शरीरमिष्टमित्रादिकम् । कथंभूतमेतत् । कम्मायत्तउ शुद्धचेतनास्वभावादमूर्तात्परमात्मनः सकाशाद्विलक्षणं यत्कर्म तदुदयेन निर्मितत्वात् कर्मायत्तम् । पुनरपि कथंभूतम् । कारिमउ अकृत्रिमात् टङ्कोत्कीर्णज्ञाय कैकस्वभावात् शुद्धात्मद्रव्याद्विपरीततब तक [आत्मा] यह जीव [पुत्रकलत्रैः मोहितः ] पुत्र स्त्री आदिकोंसे मोहित हुआ [ दुःखं सहमान: ] अनेक दुःखोंको सहता हुआ [ योनि लक्षाणि ] चौरासी लाख योनियोंमें [ परिभ्रमति ] भटकता फिरता है । भावार्थ - यह जीव चौरासी लाख योनियोंमें अनेक तरहके ताप सहता हुआ भटक रहा है, निज परमात्मतत्वके ध्यानसे उत्पन्न वीतराग परम आनन्दरूप निर्व्याकुल अतीन्द्रिय सुखसे विमुख जो शरीरके तथा मनके नाना तरहके सुख दुःखोंको सहता हुआ भ्रमण करता है । ि परमात्माकी भावनाके शत्रु जो देहसम्बंधी माता, पिता, भ्राता, मित्र, पुत्र-कलत्रादि उनसे मोहित है, तबतक अज्ञानी है, वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानसे रहित है, वह ज्ञान मोक्षका साधन है, ज्ञानसे ही मोक्षकी सिद्धि होती है । इसलिये हमेशा ज्ञानकी ही भावना करनी चाहिये || १२२॥ आगे हे जीव, तू घर परिवार और शरीरादिका ममत्व मत कर ऐसा समझाते हैं -[ जीव ] जीव, तू [गृहं ] घर [ परिजनं ] परिवार [ तनुः ] शरीर [ इष्टं ] और मित्रादिकोंको [आत्मीयं मा जानीहि ] अपने मत जान, क्योंकि [ आगमे ] परमागममें [ योगिभिः ] योगियोंने [दृष्टं] ऐसा दिखलाया है, कि ये [कर्मायत्तं ] कर्मोके आधीन हैं, और [ कृत्रिमं ] विनाशीक है । भावार्थ-ये घर वगैरह शुद्ध चेतनस्वभाव अमूर्तिक निज आत्मासे भिन्न जो शुभाशुभ कर्म उसके उदयसे उत्पन्न हुए हैं, इसलिये कर्माधीन हैं, और विनश्वर होनेसे शुद्धात्मद्रव्यसे विपरीत हैं । शुद्धात्मद्रव्य किसीका बनाया हुआ नहीं है, इसलिये अकृत्रिम है, अनादि सिद्ध है, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy