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________________ २३८ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १२२कम्मई कुणहि किं कर्माणि करोषि किमर्थं तोइ यद्यपि दुःखानीष्टानि न भवन्ति तथापि इति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञाखा कर्मास्रवमतिपक्षभूतरागादिविकल्परहिता निजशुद्धात्मभावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ॥ १२० ॥ अथ बहिसिंगासक्तं जगत् क्षणमप्यात्मानं न चिन्तयतीति प्रतिपादयति धंधइ पडियउ सयल जगु कम्मइँ करइ अयाणु । मोक्खहँ कारणु एकु खणु णवि चिंतइ अप्पाणु ।। १२१ ।। धान्धे (?) पतितं सकलं जगत् कर्माणि करोति अज्ञानि । मोक्षस्य कारणं एक क्षण नव चिन्तयति आत्मानम् ॥ १२१ ॥ धंधइ इत्यादि।धंधइ धान्धे मिथ्यावविषयकषायनिमित्तोत्पन्ने दुर्ध्यानातरौद्रव्यासंगे पडियउ पतितं व्यासक्तम् । किम् । सयलु जगु समस्तं जगत् , शुद्धात्मभावनापराङ्मुखो मूढमाणिगणः कम्मइं करइ कर्माणि करोति । कथंभूतं जगत् । अयाणु विशिष्टभेदज्ञानरहितं मोक्खहं कारणु अनन्तज्ञानादिस्वरूपमोक्षकारणं एकु खणु एकक्षणमपि णवि चिंतइ नैव ध्यायति । कम् । अप्पाणु वीतरागपरमाह्लादरसास्वादपरिणतं स्वशुद्धात्मानमिति भावार्थः ॥ १२१ ॥ अथ तमेवार्थं द्रढयति जोणि-लक्खइँ परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु । पुत्त-कलत्तहि मोहियउ जाव ण णाणु महंतु ॥ १२२ ॥ योनिलक्षाणि परिभ्रमति आत्मा दुःखं सहमानः । पुत्रकलत्रैः मोहितः यावन्न ज्ञानं महत् ॥ १२२ ॥ अच्छे नहीं लगते, दुःखोंको अनिष्ट जानता है, तो दुःखके कारण कर्मोको क्यों उपार्जन करता है ? मत कर । यहाँ पर ऐसा व्याख्यान जानकर कर्मोंके आस्रवसे रहित तथा रागादि विकल्प-जालोंसे रहित जो निज शुद्धात्माकी भावना वही करनी चाहिए, ऐसा तात्पर्य जानना ॥१२०॥ ___आगे बाहरके परिग्रहमें लीन हुए जगतके प्राणी क्षणमात्र भी आत्माका चिंतवन नहीं करते, ऐसा कहते हैं धांधे पतितं] जगतके धंधेमें पड़ा हुआ [सकलं जगत्] सब जगत [अज्ञानि] अज्ञानी हुआ [कर्माणि] ज्ञानावरणादि आठों कर्मोको [करोति] करता है, परन्तु [मोक्षस्य कारणं] मोक्षके कारण [आत्मानं] शुद्ध आत्माको [एकं क्षणं] एक क्षण भी [नैव चिंतयति] नहीं चिन्तवन करता ।। भावार्थ-भेदविज्ञानसे रहित ये मूढ प्राणी शुद्धात्माकी भावनासे पराङ्मुख है, इसलिए शुभाशुभ कर्मोंका ही बंध करता है, और अनंतज्ञानादिस्वरूप मोक्षका कारण जो वीतराग परमानन्दरूप निजशुद्धात्मा उसका एक क्षण भी विचार नहीं करता । सदा ही आर्त रौद्र ध्यानमें लग रहा है ऐसा सारांश है ।।१२१॥ आगे उसी बातको दृढ करते हैं यावत्] जब तक [महत् ज्ञानं न] सबसे श्रेष्ठ ज्ञान नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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