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________________ - दोहा १२० ] परमात्मप्रकाश: पावहि दुक्खु महंतु तुहुँ जिय संसारि भमंतु । अवि कम्मइँ णिलिवि वच्चहि मुक्खु महंतु ॥ ११९ ॥ प्राप्नोषि दुःखं महत् त्वं जीव संसारे भ्रमन् । अष्टापि कर्माणि निर्दल्य व्रज मोक्षं महान्तम् ॥ ११९॥ २३७ पावहि इत्यादि । पावहि दुक्खु महंतु प्राप्नोषि दुःखं महद्रूपं तुहुं खं जिय हे जीव । किं कुर्वन् । संसारि भमंतु निश्चयेन संसारे विपरीतशुद्धात्मविलक्षणं द्रव्य क्षेत्रकालभवभावपञ्चभेदभिन्नं संसारं भ्रमन् । तस्मात्किं कुरु । अट्ठ वि कम्मई णिद्दलिवि शुद्धात्मोपलम्भबलेनाष्टापि कर्माणि निर्मूल्य वचहि व्रज । कम् । मुक्खु स्वात्मोपलब्धिलक्षणं मोक्षम् । तथा चोक्तम्- 'सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः । कथंभूतं मोक्षम् | महंतु केवलज्ञानादिमहागुणयुक्तत्वान्महान्तमित्यभिप्रायः ।। ११९ ।। अथ यद्यप्यल्पमपि दुःखं सोढुमसमर्थस्तथापि कर्माणि किमिति करोषीति शिक्षां प्रयच्छति — जय अणु-मित्तु विदुक्खडा सहण ण सक्कहि जोइ । च - गइ - दुक्खहँ कारणइँ कम्मइँ कुणहि किं तोइ ॥ १२० ॥ जीव अणुमात्राण्यपि दुःखानि सोढुं न शक्नोषि पश्य । Jain Education International चतुर्गतिदुःखानां कारणानि कर्माणि करोषि किं तथापि ॥ १२० ॥ जिय इत्यादि । जिय हे मूढजीव अणुमिन्तु वि अणुमात्राण्यपि । कानि । दुक्खडा दुःखानि सहण ण सक्कहि सोढुं न शक्नोषि जोइ पश्य । यद्यपि चउगइदुक्खहं कारणई परमात्मभावनोत्पन्नतात्त्विकवीतरागनित्यानन्दैक विलक्षणानां नारकादिदुःखानां कारणभूतानि [प्राप्नोषि ] पावेगा, इसलिए [ अष्टापि कर्माणि] ज्ञानावरणादि आठों ही कर्मोंको [ निर्दल्य ] नाश कर [महांतं मोक्षं ] सबमें श्रेष्ठ मोक्षको [ व्रज ] जा ॥ भावार्थ - निश्चयकर संसारसे रहित जो शुद्धात्मा उससे जुदा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पाँच तरहके परावर्तनस्वरूप संसार उसमें भटकता हुआ चारों गतियोंके दुःख पावेगा, निगोद राशिमें अनंतकाल तक रूलेगा । इसलिए आठ कर्मोंका क्षय करके शुद्धात्माकी प्राप्तिके बलसे रागादिकका नाश कर, निर्वाणको जा । कैसा है वह निर्वाण, जो निजस्वरूपकी प्राप्ति वही जिसका स्वरूप है, और जो सबमें श्रेष्ठ है । केवलज्ञानादि महान गुणोंकर सहित हैं। जिसके समान दूसरा कोई नहीं ॥११९|| आगे जो थोडे दुःख भी सहनेको असमर्थ है, तो ऐसे काम क्यों करता है, कि जन्मोंसे अनंत कातक दुःख तू भोगे, ऐसी शिक्षा देते हैं - [ जीव ] हे मूढजीव, तू [ अणुमात्राण्यपि ] परमाणुमात्र (थोडे) भी [दुःखानि] दुःख [ सोढुं ] सहनेको [ न शक्नोषि ] नहीं समर्थ है, [ पश्य ] देख [ तथापि ] तो फिर [ चतुर्गतिदुःखानां ] चार गतियोंके दुःखके [ कारणानि कर्माणि ] कारण जो कर्म है, [ किं करोषि ] उनको क्यों करता है ? भावार्थ- परमात्माकी भावनासे उत्पन्न तत्त्वरूप वीतराग नित्यानंद परम स्वभाव उससे भिन्न जो नरकादिकके दुःख उनके कारण कर्म ही है । जो दुःख तुझे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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