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________________ २३२ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ११२परमो धर्म इति चेत् , निरन्तरविषयकषायाधीनतया आर्तरौद्रध्यानरतानां निश्चयरत्नत्रयलक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति । शुद्धोपयोगपरमधर्मरतैस्तपोधनैस्वन्नपानादिविषये मानापमानसमतां कृखा यथालाभेन संतोषः कर्तव्य इति ॥ १११*४ ॥ अथ शुद्धात्मोपलम्भाभावे सति पञ्चेन्द्रियविषयासक्तजीवानां विनाशं दर्शयति रूवि पयंगा सद्दि मय गय फासहि णासंति । अलिउल गंधइँ मच्छ रसि किम अणुराउ करंति ॥ ११२ ॥ रूपे पतङ्गाः शब्दे मृगाः गजाः स्पर्शी: नश्यन्ति । अलिकुलानि गन्धेन मत्स्याः रसे किं अनुरागं कुर्वन्ति ॥ ११२ ॥ रूवि इत्यादि । रूपे समासक्ताः पतङ्गाः शब्दे मृगा गजाः स्पशैंः गन्धेनालिकुलानि मत्स्या रसासक्ता नश्यन्ति यतः कारणात् ततः कारणात्कथं तेषु विषयेष्वनुरागं कुर्वन्तीति । तथाहि । पञ्चेन्द्रियविषयाकांक्षाप्रभृतिसमस्तापध्यानविकल्पै रहितः शून्यः स्पर्शनादीन्द्रियकषायातीतनिर्दोषिपरमात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागपरमाह्लादैकलक्षणसु. खामृतरसास्वादेन पूर्णकलशवद्भरितावस्था केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादकः रत्नत्रयरूप शुद्धोपयोग परमधर्मका तो इनके ठिकाना ही नहीं है, अर्थात् गृहस्थोंके शुद्धोपयोगकी ही मुख्यता है । और शुद्धोपयोगी मुनि इनके घर आहार लेवें तो इसके समान अन्य क्या ? श्रावकका तो यही बडा धरम है, कि यति, आर्जिका, श्रावक, श्राविका, इन सबको विनयपूर्वक आहार दे । और यतिका यही धर्म है, कि अन्न जलादिमें राग न करे, और मान अपमानमें 'समताभाव रक्खे । गृहस्थके घर जो निर्दोष आहारादिक जैसा मिले वैसा लेवे, चाहे चावल मिले, चाहे अन्य कुछ मिले । जो मिले उसमें हर्ष विषाद न करे । दूध, दही, घी, मिष्ठान्न, इनमें इच्छा न करे । यही जिनमार्गमें यतिकी रीति है ।।१११*४।। ___ आगे शुद्धात्माकी प्राप्तिके अभावमें जो विषयी जीव पाँच इंद्रियोंके विषयोंमें आसक्त हैं, उनका अकाज (विनाश) होता है, ऐसा दिखलातें है [रूपे] रूपमें लीन हुए [पतंगाः] पतंग जीव दीपकमें जलकर मर जाते हैं, [शब्दे] शब्द विषयमें लीन [मृगाः] हिरण व्याधके बाणोंसे मारे जाते हैं, [गजाः] हाथी [स्पर्शः] स्पर्श विषयके कारण गड्ढेमें पडकर बाँधे जाते हैं, [गंधेन] सुगंधकी लोलुपतासे [अलिकुलानि] भौरें काँटोंमें या कमलमें दबकर प्राण छोड देते हैं और [रसे] रसके लोभी [मत्स्याः ] मच्छ [नश्यंति] धीवरके जालमें पडकर मारे जाते हैं । एक एक विषय कषायमें आसक्त हुए जीव नाशको प्राप्त होते हैं, तो पंचेन्द्रियका कहना ही क्या है ? ऐसा जानकर विवेकी जीव विषयोमें [किं] क्या [अनुरागं] प्रीति [कुर्वंति] करते हैं ? कभी नहीं करते । भावार्थ-पंचेन्द्रियके विषयोंकी इच्छा आदि जो सब खोटे ध्यान वे ही हुए विकल्प उनसे रहित विषय कषाय रहित जो निर्दोष परमात्मा उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप जो निर्विकल्प समाधि, उससे उत्पन्न वीतराग परम आह्लादरूप सुख-अमृत, उसके रसके स्वादकर पूर्ण कलशकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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