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दोहा ११४ ] परमात्मप्रकाशः
२३३ शुद्धोपयोगस्वभावो योऽसावेवंभूतः कारणसमयसारः तद्भावनारहिता जीवाः पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषवशीकृता नश्यन्तीति ज्ञावा कयं तत्रासक्तिं गच्छन्ति ते विवेकिन इति । अत्र पतङ्गादय एकैकविषयासक्ता नष्टाः, ये तु पञ्चेन्द्रियविषयमोहितास्ते विशेषेण नश्यन्तीति भावार्थः॥११२।। अथ लोभकषायदोषं दर्शयति
जोइय लोहु परिचयहि लोहु ण भल्लउ होइ । लोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहतउ जोइ ।। ११३ ॥ योगिन् लोभं परित्यज लोभो न भद्रः भवति ।
लोभासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ॥ ११३ ॥ हे योगिन् लोभं परित्यज । कस्मात । लोभो भद्रः समीचीनो न भवति । लोभासक्तं समस्तं जगद् दुःखं सहमानं पश्येति । तथाहि-लोभकषायविपरीतात् परमात्मस्वभावाद्विपरीतं लोभं त्यज हे प्रभाकरभट्ट । यतः कारणात् निर्लोभपरमात्मभावनारहिता जीवा दुःखमुपभुञ्जानास्तिष्ठन्तीति तात्पर्यम् ॥ ११३॥ अथामुमेव लोभकषायदोषं दृष्टान्तेन समर्थयति
तलि अहिरणि वरि घणवडणु संडस्सय-लुंचोडु ।
लोहहँ लग्गिवि हुयवहहँ पिक्खु पडतउ तोडु ॥ ११४ ॥ तरह भरे हुए जो केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप कार्यसमयसार, उसका उत्पन्न करनेवाला जो शुद्धोपयोगरूप कारण समयसार, उसकी भावनासे रहित संसारीजीव विषयोके अनुरागी पाँच इन्द्रियोंके लोलुपी भव भवमें नाश पाते हैं । ऐसा जानकर इन विषयोंमें विवेकी कैसे रागको प्राप्त होवें ? कभी विषयाभिलाषी नहीं होते । पतंगादिक एक एक विषयमें लीन हुए नष्ट हो जाते हैं, लेकिन जो पाँच इन्द्रियोंके विषयोंमें मोहित हैं, वे वीतराग चिदानन्दस्वभाव परमात्मतत्व उसको न सेवते हुए, न जानते हुए, और न भावते हुए, अज्ञानी जीव मिथ्या मार्गको वांछते, कुमार्गकी रुचि रखते हुए नरकादि गतिमें घानीमें पिलना, करोंतसे विदरना, और शूलीपर चढना इत्यादि अनेक दुःखोंको देहादिककी प्रीतिसे भोगते हैं । ये अज्ञानी जीव वीतरागनिर्विकल्प परमसमाधिसे पराङ्मुख हैं, जिनके चित्त चंचल है, कभी निश्चल चित्तकर निजरूपको नहीं ध्यावते हैं । और जो पुरुष स्नेहसे रहित हैं, वीतरागनिर्विकल्प समाधिमें लीन हैं, वे ही लीलामात्रमें संसारको तैर जाते हैं ॥११२।।
आगे लोभकषायका दोष कहते हैं-[योगिन्] हे योगी, तू [लोभं] लोभको [परित्यज] छोड, [लोभः] यह लोभ [भद्रो न भवति] अच्छा नहीं है, क्योंकि [लोभासक्तं] लोभमें फँसे हए [सकलं जगत्] सम्पूर्ण जगतको [दु:खं सहमानं] दुःख सहते हुए [पश्य] देख ॥ भावार्थ-लोभकषायसे रहित जो परमात्मस्वभाव उससे विपरीत जो इसभव परभवका लोभ, धन धान्यादिका लोभ उसे तू छोड । क्योंकि लोभी जीव भव भवमें दु:ख भोगते हैं, ऐसा तू देख रहा है ॥११३॥
आगे लोभकषायके दोषको दृष्टांतसे पुष्ट करते हैं-[लोहं लगित्वा] जैसे लोहेका संबंध पाकर
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