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________________ - दोहा १११ *४] परमात्मप्रकाशः यदि इच्छसि भो साधो द्वादशविधतपः फलं महद्विपुलम् । ततः मनोवचनयोः काये भोजनगृद्धिं विवर्जयस्व ॥ १११*३ ॥ जइ इच्छसि यदि इच्छसि भो साधो द्वादशविधतपःफलम् । कथंभूतम् । महद्विपुलं स्वर्गापवर्गरूपं ततः कारणात् वीतरागनिजानन्दैकसुखरसास्वादानुभवेन तृप्तो भूत्वा मनोवचनकायेषु भोजनगृद्धिं वर्जय इति तात्पर्यम् ।। १११*३ ।। उक्तं च २३१ जे संरसिं संतु-मण विरसि कसाउ वर्हति । ते मुणि भोयण- घार गणि गवि परमत्थु मुणंति ॥ १११४ ॥ ये सरसेन संतुष्टमनसः विरसे कषायं वहन्ति । ते मुनयः भोजनगृध्राः गणय नैव परमार्थं मन्यन्ते ॥ १११*४॥ जे इत्यादि । जे सरसिं संतुट्टमण ये केचन सरसेन सरसाहारेण संतुष्टमनसः विरसि कसाउ वर्हति विरसे विरसाहारे सति कषायं वहन्ति कुर्वन्ति ते ते पूर्वोक्ताः मुणि मुनयस्तपोधनाः भोयणधार गणि भोजनविषये गृध्रसदृशान् गणय मन्यस्व जानीहि । इत्थंभूताः सन्तः णवि परमत्थु मुणति नैव परमार्थं मन्यन्ते जानन्तीति । अयमत्र भावार्थः । गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मस्तेनैव सम्यक्त्वपूर्वेण परंपरया मोक्षं लभन्ते । कस्मात् स एव आगे फिर भी भोजनकी लालसाको त्याग कराते है - [ भो साधो ] हे योगी, [ यदि ] यदि तू [द्वादशविधतपःफलं] बारह प्रकार तपका फल [ महद्विपुलं ] बडा भारी स्वर्ग मोक्ष [ इच्छसि ] चाहता है, [ततः] तो वीतराग निजानन्द एक सुखरसका आस्वाद उसके अनुभवसे तृप्त हुआ [मनोवचनयोः ] मन वचन और [ काये] कायसे [ भोजनगृद्धिं ] भोजनकी लोलुपताको [विवर्जयस्व ] त्याग कर दे । यह सारांश है ||१११ *३|| Jain Education International और भी कहा है - [ ये] जो योगी [ सरसेन ] स्वादिष्ट आहारसे [ संतुष्टमनसः] हर्षित होते हैं, और [विरसे] नीरस आहारमें [ कषायं ] क्रोधादि कषाय [वहंति ] करते हैं, [ते मुनयः ] वे मुनि [भोजने गृध्राः ] भोजनके विषयमें गृद्धपक्षीके समान है, ऐसा तू [ गणय ] समझ । वे [परमार्थं] परमतत्वको [ नैव मन्यंते ] नहीं समझते हैं | भावार्थ - जो कोई वीतरागके मार्गसे विमुख हुए योगी रस सहित स्वादिष्ट आहारसे खुश होते हैं, कभी किसीके घर छह रसयुक्त आहार पावें तो मनमें हर्ष करें, आहारके देनेवालेसे प्रसन्न होते हैं, यदि किसीके घर रसरहित भोजन मिले तो कषाय करते हैं, उस गृहस्थको बुरा समझते हैं, वे तपोधन नहीं हैं, भोजनके लोलुपी हैं । गृद्धपक्षीके समान है । ऐसे लोलुपी यति देहमें अनुरागी होते हैं, परमात्म- पदार्थको नहीं जानते । गृहस्थोंके तो दानादिक ही बडे धर्म है । यदि सम्यक्त्व सहित दानादि करे, तो परम्परासे मोक्ष पावे | क्योंकि श्रावकका दानादिक ही परमधर्म है । वह ऐसे है, कि ये गृहस्थ लोग हमेशा विषय कषायके आधीन हैं, इससे इनके आर्त रौद्र ध्यान उत्पन्न होते रहते हैं, इस कारण निश्चय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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