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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ९१णेन बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहकांक्षारूपप्रभृतिसमस्तमनोरथकल्लोलमालात्यागरूपं मनोमुण्डनं पूर्वमकृला जिनदीक्षारूपं शिरोमुण्डनं कृखापि केनाप्यात्मा वञ्चितः । कस्मात् ? सर्वसंगपरित्यागाभावादिति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञाखा स्वशुद्धात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दपरिग्रहं कृखा तु जगत्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च दृष्टश्रुतानुभूतनिःपरिग्रहशुद्धात्मानुभूतिविपरीतपरिग्रहकासास्त्वं त्यजेत्यभिप्रायः ॥ ९० ॥
- अथ ये सर्वसंगपरित्यागरूपं जिनलिङ्गं गृहीतापीष्टपरिग्रहान् गृह्णन्ति ते छर्दैि कृखा पुनरपि गिलन्ति तामिति प्रतिपादयति
जे जिण-लिंगु धरेवि मुणि इट्ट-परिग्गह लेंति । छद्दि करेविणु ते जि जिय सा पुणु छद्दि गिलंति ॥ ९१ ॥ ये जिनलिङ्गं धृत्वापि मुनय इष्टपरिग्रहान् लान्ति ।
छदि कृत्वा ते एव जीव तां पुनः छर्दैि गिलन्ति ॥ ९१ ॥ ये केचन जिनलिङ्गं गृहीखापि मुनयस्तपोधना इष्टपरिग्रहान् लान्ति गृह्णन्ति । ते किं कुर्वन्ति । छदि कृता त एव हे जीव तां पुनश्छदि गिलन्तीति । तथापि गृहस्थापेक्षया चेतनपरिग्रहः पुत्रकलत्रादिः, सुवर्णादिः पुनरचेतनः, साभरणवनितादि पुनर्मिश्रः । तपोधनापेक्षया छात्रादिः सचित्तः, पिच्छकमण्डल्वादिः पुनरचित्तः, उपकरणसहितश्छात्रादिस्तु मिश्रः । अथवा मिथ्यातपरिग्रहका त्याग नहीं किया, उसने अपने आत्माको ठगा ऐसा कथन समझकर निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न, वीतराग परम आनंदस्वरूपको अंगीकार करके तीनों काल तीनों लोकमें मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनाकर देखे सुने अनुभवे जो परिग्रह उनकी वाँछा सर्वथा त्यागनी चाहिये । ये परिग्रह शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत हैं ॥९०॥ __ आगे जो सर्वसंगके त्यागरूप जिनमुद्राको ग्रहण कर फिर परिग्रहको धारण करता है, वह वमन करके पीछे निगलता है, ऐसा कथन करते हैं-ये] जो [मुनयः] मुनि [जिनलिंगं] जिन लिंगको [धृत्वापि] ग्रहणकर [इष्टपरिग्रहान्] फिर भी इच्छित परिग्रहोंको [लांति] ग्रहण करते हैं, [जीव] हे जीव, [ते एव] वे ही [छदि कृत्वा] वमन करके [पुनः] फिर [तां छर्दि] उस वमनको पीछे [गिलंति] निगलते हैं ॥ भावार्थ-परिग्रहके तीन भेदोंमें गृहस्थकी अपेक्षा चेतन परिग्रह पुत्र कलत्रादि, अचेतन परिग्रह आभरणादि, और मिश्र परिग्रह आभरण सहित स्त्री पुत्रादि, साधुकी अपेक्षा सचित परिग्रह शिष्यादि, अचित परिग्रह पीछी कमंडलु पुस्तकादि, और मिश्र परिग्रह पीछी कमंडलु पुस्तकादि सहित शिष्यादि अथवा साधुके भावोंकी अपेक्षा सचित परिग्रह मिथ्यात्व रागादि, अचित परिग्रह द्रव्यकर्म नोकर्म, और मिश्र परिग्रह द्रव्यकर्म भावकर्म दोनों मिले हुए । अथवा वीतराग त्रिगुप्तिमें लीन ध्यानी पुरुषकी अपेक्षा सचित परिग्रह सिद्ध परमेष्ठीका ध्यान, अचित परिग्रह पुद्गलादि पाँच द्रव्यका विचार, और मिश्र परिग्रह गुणस्थान मार्गणास्थान जीवसमासादिरूप संसारीजीवका विचार । इस तरह बाहिरके और अंतरके परिग्रहसे
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