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-दोहा ९२ ] परमात्मप्रकाशः
२११ रागादिरूपः सचित्तः, द्रव्यकर्मनोकर्मरूपः, पुनरचित्तः द्रव्यकर्मभावकर्मरूपस्तु मिश्रः। वीतरागत्रिगुप्तसमाधिस्थपुरुषापेक्षया सिद्धरूपः सचित्तः पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपः पुनरचित्तः गुणस्थानमार्गणास्थानजीवस्थानादिपरिणतः संसारीजीवस्तु मिश्रश्चेति। एवंविधबाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितं जिनलिङ्गं गृहीलापि ये शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणमिष्टपरिग्रहं गृह्णन्ति ते छर्दिताहारग्राहकपुरुषसदृशा भवन्तीति भावार्थः । तथा चोक्तम्-" त्यक्त्वा स्वकीयपितृमित्रकलत्रपुत्रान् सक्तोऽन्यगेहवनितादिषु निर्मुमुक्षुः। दोभ्यां पयोनिधिसमुद्गतनक्रचक्रं प्रोत्तीर्य गोष्पदजलेषु निमग्नवान् सः॥" ॥ ९१ ॥
अथ ये ख्यातिपूजालाभनिमित्तं शुद्धात्मानं त्यजन्ति ते लोहकीलनिमित्तं देवं देवकुलं च दहन्तीति कथयति
लाहहँ कितिहि कारणिण जे सिव-संगु चयंति । खीला-लग्गिवि ते वि मुणि देउलु देउ डहति ॥ ९२॥ लाभस्य कीर्तेः कारणेन ये शिवसंगं त्यजन्ति ।
कीलानिमित्त तेऽपि मुनयः देवकुलं देवं दहन्ति ।। ९२ ॥ लाभकीर्तिकारणेन ये केचन शिवसंगं शिवशब्दवाच्यं निजपरमात्मध्यानं त्यजन्ति ते मुनयस्तपोधनाः। किं कुर्वन्ति । लोहकीलिकामायं निःसारेन्द्रियसुखनिमित्तं देवशब्दवाच्यं रहित जो जिनलिंग उसे ग्रहण कर जो अज्ञानी शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत परिग्रहको ग्रहण करते हैं, वे वमन करके पीछे आहार करनेवालोंके समान निंदाके योग्य होते हैं । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि जो जीव अपने माता, पिता, पुत्र, मित्र, कलत्र इनको छोडकर परके घर और पुत्रादिकमें मोह करते हैं, अर्थात् अपना परिवार छोडकर शिष्य-शाखाओंमें राग करते हैं, वे भुजाओंसे समुद्रको तैरकर गायके खुरसे बने हुए गढेके जलमें डूबते हैं । कैसा है समुद्र, जिसमें जलचरोंके समूह प्रगट हैं, ऐसे अथाह समुद्रको तो बाहोंसे तिर जाता है लेकिन गायके खुरके जलमें डूबता है । यह बडा अचंभा है । घरका ही संबंध छोड दिया तो पराये पुत्रोंसे क्या राग करना ? नहीं करना चाहिये ॥९१॥ ___ आगे जो अपनी प्रसिद्धि (बडाई) प्रतिष्ठा और परवस्तुका लाभ इन तीनोंके लिए आत्मध्यानको छोडते हैं, वे लोहेके कीलेके लिए देव तथा देवालयको जलाते हैं-[ये] जो कोई [लाभस्य] लाभ [कीर्तेः कारणेन] और कीर्तिके कारण [शिवसंगं] परमात्माके ध्यानको [त्यजंति] छोड देते हैं, [ते अपि मुनयः] वे ही मुनि [कीलानिमित्तं] लोहेके कीलेके लिए अर्थात् कीलेके समान असार इंद्रिय-सुखके निमित्त [देवकुलं] मुनिपद योग्य शरीररूपी देवस्थानको तथा [देवं] आत्मदेवको [दहंति] भवके आतापसे भस्म कर देते हैं । भावार्थ-जिस समय ख्याति पूजा लाभके अर्थ शुद्धात्माकी भावनाको छोडकर अज्ञान भावोंमें प्रवृत्त होते हैं, उस समय ज्ञानावरणादि कर्मोंका बंध होता है । उस ज्ञानावरणादिके बंधसे ज्ञानादि गुणका आवरण होता है । केवलज्ञानावरणसे केवलज्ञान ढुक जाता है, मोहके उदयसे अनंतसुख, वीर्यांतरांयके उदय ये
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