SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -दोहा ९० ] परमात्मप्रकाशः २०९ करणादिकं गृहीखा । कोऽसावज्ञानी न तु ज्ञानीति । इदमत्र तात्पर्यम् । परमोपेक्षासंयमधरेण शुद्धात्मानुभूतिप्रतिपक्षभूतः सर्वोऽपि तावत्परिग्रहस्त्याज्यः। परमोपेक्षासंयमाभावे तु वीतरागशुद्धात्मानुभूतिभावसंयमरक्षणार्थं विशिष्टसंहननादिशक्त्यभावे सति यद्यपि तपःपर्यायशरीरसहकारिभूतमन्नपानसंयमशौचज्ञानोपकरणतृणमयप्रावरणादिकं किमपि गृह्णाति तथापि ममलं न करोतीति । तथा चोक्तम्-"रम्येषु वस्तुवनितादिषु वीतमोहो मुह्येद् वृथा किमिति संयमसाधनेषु। धीमान् किमामयभयात्परिहत्य भुक्तिं पीवौषधं व्रजति जातुचिदप्यजीर्णम् ॥" ॥८९ ॥ __ अथ केनापि जिनदीक्षां गृहीला शिरोलुश्चनं कखापि सर्वसंगपरित्यागमकुर्वतात्मा वश्चित इति निरूपयति केण वि अप्पउ वंचियउ सिरु लुचिवि छारेण । सयल वि संग ण परिहरिय जिणवर-लिंगधरेण ।। ९० ॥ केनापि आत्मा वश्चितः शिरो लुश्चित्वा क्षारेण । सकला अपि संगा न परिहृता जिनवरलिङ्गधरेण ॥ ९० ॥ केनाप्यात्मा वञ्चितः । किं कृखा। शिरोलुश्चनं कृखा। केन । भस्मना। कस्मादिति चेत् । यतः सर्वेऽपि संगा न परिहताः । कथंभूतेन भूत्वा । जिनवरलिङ्गधारकेणेति । तद्यथा । वीतरागनिर्विकल्पनिजानन्दैकरूपसुखरसावादपरिणतपरमात्मभावनास्वभावेन तीक्ष्णशस्त्रोपकरतपका साधन शरीरकी रक्षाके निमित्त अन्न जलका ग्रहण होता है, उस अन्न जलके लेनेसे मलमूत्रादिकी बाधा भी होती है, इसलिये शौचका उपकरण कमंडलु, और संयमोपकरण पीछी, और ज्ञानोपकरण पुस्तक इनको ग्रहण करते हैं, तो भी इनमें ममता नहीं है, प्रयोजनमात्र प्रथम अवस्थामें धारते हैं । ऐसा दूसरी जगह “रम्येषु" इत्यादिसे कहा है, कि मनोज्ञ स्त्री आदिक वस्तुओंमें जिसने मोह छोड़ दिया है, ऐसा महामुनि संयमके साधन पुस्तक पीछी कमंडलु आदि उपकरणोंमें वृथा मोहको कैसे कर सकता है ? कभी नहीं कर सकता । जैसे कोई बुद्धिमान पुरुष रोगके भयसे अजीर्णको दूर करना चाहे और अजीर्णके दूर करनेके लिये औषधिका सेवन करे, तो क्या मात्रासे अधिक ले सकता है ? ऐसा कभी नहीं करेगा, मात्राप्रमाण ही लेगा ॥८९॥ ___आगे ऐसा कहते हैं, कि जिसने जिनदीक्षा धरके केशोंका लोच किया, और सकल परिग्रहका त्याग नहीं किया, उसने अपने आत्माको ही वंचित किया-[केनापि] जिस किसीने [जिनवरलिंगधरेण] जिनवरका भेष धारण करके [क्षारेण] भस्मसे [शिरः] शिरके केश [लुचित्वा] लोच किये, (उखाडे) लेकिन [सकला अपि संगाः] सब परिग्रह [न परिहृताः] नहीं छोडे, उसने [आत्मा] अपने आत्माको ही [वंचितः] ठग लिया ॥ भावार्थ-वीतराग निर्विकल्पनिजानंद अखंडरूप सुखरसका जो आस्वाद उसरूप परिणमी जो परमात्माकी भावना वही हुआ तीक्ष्ण शस्त्र उससे बाहिरके और अंतरके परिग्रहोंकी वाञ्छा आदि ले समस्त मनोरथ उनकी कल्लोल मालाओंका त्यागरूप मनका मुंडन वह तो नहीं किया, और जिनदीक्षारूप शिरोमुंडन कर भेष रखा, संब पर०२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy