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________________ २०८ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ८९यद्यपि साक्षात्पुण्यबन्धकारणं मन्यते परंपरया मुक्तिकारणं च तथापि निश्चयेन मुक्तिकारणं न मन्यते इति तात्पर्यम् ॥ ८८ ॥ अथ चट्टपट्टकुण्डिकाधुपकरणैर्मोहमुत्पाद्य मुनिवराणां उत्पथे पात्यते [?] इति प्रतिपादयति चहि पट्टहि कुंडियहि चेल्ला-चेल्लियएहि । मोहु जणेविणु मुणिवरहँ उप्पहि पाडिय तेहि ॥ ८९ ॥ चट्टैः प?: कुण्डिकाभिः शिष्यार्जिकाभिः । मोहं जनयित्वा मुनिवराणां उत्पथे पातितास्तैः ॥ ८९ ॥ चट्टपट्टकुण्डिकाद्युपकरणैः शिष्याणिकादिपरिवारश्च कर्तृभूतैर्मोह जनयित्वा। केषाम् । मुनिवराणां, पश्चादुन्मार्गे पातितास्ते तु तैः । तथाहि । यथा कश्चिदजीर्णभयेन विशिष्टाहारं त्यक्त्वा लङ्घनं कुर्वन्नास्ते पश्चादजीर्णप्रतिपक्षभूतं किमपि मिष्टौषधं गृहीला जिहालाम्पटयेनौषधेनापि अजीर्णं करोत्यज्ञानी इति, न च ज्ञानीति, तथा कोऽपि तपोधनो विनीतवनितादिकं मोहभयेन त्यक्त्वा जिनदीक्षां गृहीखा च शुद्धबुद्धैकस्वभावनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनीरोगतप्रतिपक्षभूतमजीर्णरोगस्थानीयं मोहमुत्पाद्यात्मनः। किं कृता । किमप्यौषधस्थानीयमुपकारण जानता है, परम्पराय मुक्तिके कारण मानता है । यद्यपि व्यवहारनयकर बाह्य सामग्रीको धर्मका साधन जानता है, तो भी ऐसा मानता है, कि निश्चयनयसे ये मुक्तिके कारण नहीं है ॥८८।। आगे कमंडलु पीछी पुस्तकादि उपकरण और शिष्यादिका संघ ये मुनियोंको मोह उत्पन्न कराकर खोटे मार्गमें पटक देते हैं-चिट्टैः पट्टैः कुंडिकाभिः] पीछी कमंडलु पुस्तक और [शिष्यार्जिकाभिः] मुनि श्रावकरूप चेला, आर्जिका, श्राविका इत्यादि चेली-ये संघ [मुनिवराणां] मुनिवरोंको [ मोहं जनयित्वा] मोह उत्पन्न कराकर [तैः] वे [उत्पथे] उन्मार्गमें (खोटे मार्गमें) [पातिताः] डाल देते हैं | भावार्थ-जैसे कोई अजीर्णके भयसे मनोज्ञ आहारको छोडकर लंघन करता है, पीछे अजीर्णको दूर करनेवाली कोई मीठी औषधिको लेकर जिह्वाका लंपटी होकर मात्रासे अधिक लेकर औषधिका ही अजीर्ण करता है, उसी तरह अज्ञानी कोई द्रव्यलिंगी यति विनयवान् पतिव्रता स्त्री आदिको मोहके डरसे छोडकर जिनदीक्षा लेकर अजीर्ण समान मोहके दूर करनेके लिये वैराग्य धारण करके औषधि समान जो उपकरणादि उनको ही ग्रहण करके उन्हींका अनुरागी (प्रेमी) होता है, उनकी वृद्धिसे सुख मानता है, वह औषधिका ही अजीर्ण करता है । मात्राप्रमाण औषधि लेवे, तो वह रोगको हर सके । यदि औषधिका ही अजीर्ण करे-मात्रासे अधिक लेवे, तो रोग नहीं जाता, उलटी रोगकी वृद्धि ही होती है । यह निःसंदेह जानना । इससे यह निश्चय हुआ जो परमोपेक्षा संयम अर्थात् निर्विकल्प परमसमाधिरूप तीन गुप्तिमयी परम शुद्धोपयोगरूप संयमके धारक है, उनके शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत सब ही परिग्रह त्यागने योग्य हैं । शुद्धोपयोगी मुनियोंके कुछ भी परिग्रह नहीं है, और जिनके परमोपेक्षा संयम नहीं लेकिन व्यवहार संयम है, उनके भावसंयमकी रक्षाके निमित्त हीन संहननके होनेपर उत्कृष्ट शक्तिके अभावसे यद्यपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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