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________________ २०४ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ८५कथंभूतः । वरो विशिष्टः। स किं मूढो न भवति किंतु भवत्येव तथ्यमिति । तद्यथा । अत्र यद्यपि लोकव्यवहारेण कविगमकवादिवाग्मिवादिलक्षणशास्त्रजनितो बोधो भण्यते तथापि निश्चयेन परमात्मप्रकाशकाध्यात्मशास्त्रोत्पनो वीतरागस्वसंवेदनरूपः स एव बोधो ग्राह्यो न चान्यः । तेनानुबोधेन विना शाखे पठितेऽपि मूढो भवतीति । अत्र यः कोऽपि परमात्मबोधजनकमल्पशास्त्रं ज्ञावापि वीतरागभावनां करोति स सिद्धयतीति । तथा चोक्तम्-“वीरा वेरग्गपरा थोवं पि हु सिक्खिऊण सिझति । ण हु सिज्झति विरागेण विणा पढिदेसु वि सव्वसत्थेसु ॥"। परं किंतु-"अक्खरडा जोयंतु ठिउ अप्पि ण दिण्णउ चित्तु । कणविरहियउ पलालु जिस पर संगहिउ बहुत्तु ॥" इत्यादि पाठमात्रं गृहीखा परेषां बहुशास्त्रज्ञानिनां दूषणा न कर्तव्या । तैबहुश्रुतैरप्यन्येषामल्पश्रुततपोधनानां दूषणा न कर्तव्या । कस्मादिति चेत् । दूषणे कृते सति परस्परं रागद्वेषोत्पत्तिर्भवति तेन ज्ञानतपश्चरणादिकं नश्यतीति भावार्थः ।। ८४ ॥ अथ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरहितानां तीर्थभ्रमणेन मोक्षो न भवतीति कथयति तित्थई तित्थु भमंताहँ मूढहँ मोक्खु ण होइ। णाण-विवजिउ जेण जिय मुणिवरु होइ ण सोइ ।। ८५ ।। उत्तम ज्ञान नहीं हुआ, [स] वह [किं] क्या [मूढः न] मूर्ख नहीं है ? [तथ्यं] मूर्ख ही है इसमें संदेह नहीं । भावार्थ-इस लोकमें यद्यपि लोक व्यवहारसे नवीन कविताका कर्ता कवि, प्राचीन काव्योंकी टीकाके कर्ताको गमक, जिससे वादमें कोई न जीत सके ऐसा वादित्व, और श्रोताओंके मनको अनुरागी करनेवाला शास्त्रका वक्ता होनेरूप वाग्मित्व, इत्यादि लक्षणोंवाला शास्त्रजनित ज्ञान होता है, तो भी निश्चयनयसे वीतरागस्वसंवेदनरूप ज्ञानकी ही अध्यात्मशास्त्रोंमें प्रशंसा की गयी है । इसलिये स्वसंवेदन ज्ञानके बिना शास्त्रोंके पढे हुए भी मूर्ख हैं । और जो कोई परमात्मज्ञानके उत्पन्न करनेवाला छोटे थोडे शास्त्रोंको भी जानकर वीतराग स्वसंवेदनज्ञानकी भावना करते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं । ऐसा ही कथन ग्रन्थोंमें हरएक जगह कहा है, कि वैराग्यमें लगे हुए जो मोहशत्रुको जीतनेवाले हैं, वे थोडे शास्त्रोंको ही पढकर सुधर जाते हैं-मुक्त हो जाते हैं, और वैराग्यके बिना सब शास्त्रोंको पढते हुए भी मुक्त नहीं होते, यह निश्चय जानना । परंतु यह कथन अपेक्षासे है । इस बहानेसे शास्त्र पढनेका अभ्यास नहीं छोडना, और जो विशेष शास्त्रके पाठी हैं, उनको दूषण न देना । जो शास्त्रके अक्षर बता रहा है, और आत्मामें चित्त नहीं लगाया वह ऐसे जानना कि जैसे किसीने कण रहित बहुत भूसेका ढेर कर लिया हो, वह किसी कामका नहीं है । इत्यादि पीठिकामात्र सुनकर जो विशेष शास्त्रज्ञ हैं, उनकी निंदा नहीं करनी, और जो बहुश्रुत हैं, उनको भी अल्प शास्त्रज्ञोंकी निंदा नहीं करनी चाहिए । क्योंकि परके दोष ग्रहण करनेसे राग द्वेषकी उत्पत्ति होती है, उससे ज्ञान और तपका नाश होता है, यह निश्चयसे जानना ॥८४॥ आगे वीतरागस्वसंवेदनज्ञानसे रहित जीवोंको तीर्थभ्रमण करनेसे भी मोक्ष नहीं है, ऐसा कहते हैं[तीर्थं तीर्थं] तीर्थ तीर्थ प्रति [भ्रमतां] भ्रमण करनेवाले [मूढानां] मूर्खाको [मोक्षः] मुक्ति [न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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