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________________ २०३ -दोहा ८४ ] परमात्मप्रकाशः जो ण हणेइ वियप्पु यः कर्ता शास्त्राभ्यासफलभूतस्य रागादिविकल्परहितस्य निजशुद्धात्मस्वभावस्य प्रतिपक्षभूतं मिथ्यावरागादिविकल्पं न हन्ति । न केवलं विकल्पं न हन्ति । देहि वसंतु वि देहे वसन्तमपि णिम्मलउ निर्मलं कर्ममलरहितं णवि मण्णइ नैव मन्यते न श्रद्धत्ते । कम् । परमप्पु निजपरमात्मानमिति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञाखा त्रिगुप्तसमाधिं कृता च स्वयं भावनीयम् । यदा तु त्रिगुप्तिगुप्तसमाधि कर्तुं नायाति तदा विषयकषायवञ्चनार्थं शुद्धात्मभावनास्मरणदृढीकरणार्थं च बहिर्विषये व्यवहारज्ञानवृद्धयर्थं च परेषां कथनीयं किंतु तथापि परमतिपादनव्याजेन मुख्यवृत्त्या स्वकीयजीव एव संबोधनीयः। कथमिति चेत् । इदमनुपपन्नमिदं व्याख्यानं न भवति मदीयमनसि यदि समीचीनं न प्रतिभाति तर्हि बमेव स्वयं किं न भावयसीति तात्पर्यम् ।। ८३॥ ____ अथ बोधार्थं शास्त्रं पठन्नपि यस्य विशुद्धात्मप्रतीतिलक्षणो बोधो नास्ति स मूढो भवतीति मतिपादयति बोह-णिमित्तें सत्थु किल लोइ पढिज्जइ इत्थु । तेण वि बोहु ण जासु वरु सो किं मृदु ण तत्थु ॥ ८४ ॥ बोधनिमित्तेन शास्त्रं किल लोके पठ्यते अत्र । तेनापि बोधो न यस्य वरः स किं मूढो न तथ्यम् ॥ ८४ ॥ वोह इत्यादि । बोधनिमित्तेन किल शास्त्रं लोके पठ्यते अत्र तेनैव कारणेन बोधो न यस्य । हैं-[यः] जो जीव [शास्त्रं] शास्त्रको [पठन्नपि] पढता हुआ भी [विकल्पं] विकल्पको [न हंति] नहीं दूर करता (मेटता), वह [जडो भवति] मूर्ख है, जो विकल्प नहीं मेटता, वह [देहे] शरीरमें [वसंतमपि] रहते हुए भी [निर्मलं परमात्मानं] निर्मल परमात्माको [नैव मन्यते] नहीं श्रद्धानमें लाता ।। भावार्थ-शास्त्रके अभ्यासका तो फल यह है, कि रागादि विकल्पोंको दूर करना, और निज शुद्धात्माको ध्यावना । इसलिए इस व्याख्यानको जानकर तीन गुप्तिमें अचल हो परमसमाधिमें आरूढ होकर निजस्वरूपका ध्यान करना । लेकिन जब तक तीन गुप्तियाँ न हों, परमसमाधि न आवे (हो सके), तब तक विषय कषायोंके हटानेके लिये परजीवोंको धर्मोपदेश देना, उसमें भी परके उपदेशके बहानेसे मुख्यताकर अपने जीवको ही संबोधना । वह इस तरह है, कि परको उपदेश देते अपनेको समझावे । जो मार्ग दूसरोंको छुडावे, वह आप कैसे करे ? इससे मुख्य संबोधन अपना ही है । परजीवोंको ऐसा ही उपदेश है, कि यह बात मेरे मनमें अच्छी नहीं लगती, तो तुमको भी भली नहीं लगती होगी, तुम भी अपने मनमें विचार करो ॥८३॥ आगे ज्ञानके लिए शास्त्रको पढते हुए भी जिसके आत्मज्ञान नहीं, वह मूर्ख है, ऐसा कथन करते हैं-[अत्र लोके] इस लोकमें [किल] नियमसे [बोधनिमित्तेन] ज्ञानके निमित्त [शास्त्रं] शास्त्र [पठ्यते] पढे जाते हैं, [तेनापि] परंतु शास्त्रके पढनेसे भी [यस्य] जिसको [वरः बोधः न] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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