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________________ -दोहा ८६ ] परमात्मप्रकाशः २०५ तीर्थं तीर्थं भ्रमतां मूढानां मोक्षो न भवति । ज्ञानविवर्जितो येन जीव मुनिवरो भवति न स एव ।। ८५ ॥ तीर्थ तीर्थं प्रति भ्रमतां मूढात्मनां मोक्षो न भवति । कस्मादिति चेत् । ज्ञानविवर्जितो येन कारणेन हे जीव मुनिवरो न भवति स एवेति । तथाहि । निर्दोषिपरमात्मभावनोत्पन्नवीतरागपरमाह्लादस्यन्दिमुन्दरानन्दरूपनिर्मलनीरपूरप्रवाहनिर्झरज्ञानदर्शनादिगुणसमूहचन्दनादिद्रुमवनराजितं देवेन्द्रचक्रवर्तिगणधरादिभव्यजीवतीर्थयात्रिकसमूहश्रवणसुखकरदिव्यध्वनिरूपराजइंसप्रभृतिविविधपक्षिकोलाहलमनोहरं यदहंद्वीतरागसर्वज्ञस्वरूपं तदेव निश्चयेन गङ्गादितीर्थं न लोकव्यवहारमसिद्धं गङ्गादिकम् । परमनिश्चयेन तु जिनेश्वरपरमतीर्थसदृशं संसारतरणोपायकारणभूतत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधिरतानां निजशुद्धात्मतत्त्वस्मरणमेव तीर्थं, व्यवहारेण तु तीर्थकरपरमदेवादिगुणस्मरणहेतुभूतं मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धकारणं तन्निर्वाणस्थानादिकं च तीर्थमिति । अयमत्र भावार्थः । पूर्वोक्तं निश्चयतीर्थं श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरहितानामज्ञानिनां शेषतीर्थं मुक्तिकारणं न भवतीति ।। ८५॥ अथ ज्ञानिनां तथैवाज्ञानिनां च यतीनामन्तरं दर्शयति णाणिहि मूढहँ मुणिवरहँ अंतरु होइ महंतु । देहु वि मिल्लइ णाणियउ जीवहँ भिण्णु मुणंतु ॥ ८६ ॥ ज्ञानिनां मूढानां मुनिवराणां अन्तरं भवति महत् । देहमपि मुञ्चति ज्ञानी जीवाद्भिन्नं मन्यमानः ।। ८६ ॥ भवति] नहीं होती, [जीव] हे जीव, [येन] क्योंकि जो [ज्ञानविवर्जितः] ज्ञानरहित हैं, [स एव] वह [मुनिवरः न भवति] मुनीश्वर नहीं है, संसारी हैं । मुनीश्वर तो वे ही हैं, जो समस्त विकल्पजालोंसे रहित होकर अपने स्वरूपमें रमें, वे ही मोक्ष पाते हैं । भावार्थ-निर्दोष परमात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो वीतराग परम आनंदरूप निर्मल जल उसके धारण करनेवाले और ज्ञान दर्शनादि गुणोंके समूहरूपी चंदनादि वृक्षोंके वनोंसे शोभित तथा देवेन्द्र चक्रवर्ती गणधरादि भव्यजीवरूपी तीर्थ यात्रियोंके कानोंको सुखकारी ऐसी दिव्यध्वनिसे शोभायमान और अनेक मुनिजनरूपी राजहंसोंको आदि लेकर नाना तरहके पक्षियोंके शब्दोंसे महामनोहर जो अरहंत वीतराग सर्वज्ञ वे ही निश्चयसे महातीर्थ हैं, उनके समान अन्य तीर्थ नहीं हैं । वे ही संसारके तरनेके कारण परमतीर्थ हैं । जो परम समाधिमें लीन महामुनि हैं, उनके वे ही तीर्थ हैं, निश्चयनयसे निज शुद्धात्मतत्त्वके ध्यानके समान दूसरा कोई तीर्थ नहीं है, और व्यवहारनयसे तीर्थंकर परमदेवादिकके गुणस्मरणके कारण मुख्यतासे शुभ बंधके कारण ऐसे जो कैलास, सम्मेदशिखर आदि निर्वाणस्थान हैं, वे भी व्यवहारमात्र तीर्थ कहे हैं । जो तीर्थ-तीर्थ प्रति भ्रमण करे, और निज तीर्थका जिसके श्रद्धान परिज्ञान आचरण नहीं हो वह अज्ञानी है । उसके तीर्थ भ्रमनेसे मोक्ष नहीं हो सकता ।।८५।। आगे ज्ञानी और अज्ञानी यतियोंमें बहुत बडा भेद दिखलाते हैं-[ज्ञानिनां] सम्यग्दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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