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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ८०स एव कर्म बनाति ॥ ७९ ॥ अथ उदयागते कर्मानुभवे योऽसौ रागद्वेषौ न करोति स कर्म न बनातीति कथयति
भुजंतु वि णिय-कम्म-फलु जो तहि राउ ण जाइ। सो णवि बंधइ कम्मु पुणु संचिउ जेण विलाइ ।। ८० ।। भुञ्जानोऽपि निजकर्मफलं यः तत्र रागं न याति ।
स नैव बध्नाति कर्म पुनः संचितं येन विलीयते ॥ ८० ॥ भुंजंतु वि इत्यादि। भुजंतु वि भुञ्जानोऽपि । सिम् । णियकम्मफल निजकर्मफलं निजशुद्धात्मोपलम्भाभावेनोपार्जितं पूर्व यत् शुभाशुभं कर्म तस्य फलं जो यो जीवः तहिं तत्र कर्मानुभवप्रस्तावे राउ ण जाइ रागं न गच्छति वीतरागचिदानन्दैकस्वभावशुद्धात्मतत्त्वभावनोत्पन्नमुखामृततृप्तः सन् रागद्वेषौ न करोति सो स जीवः णवि बंधइ नैव बध्नाति । किं न बधाति । कम्मु ज्ञानावरणादि कर्म पुणु पुनरपि । येन कर्मबन्धाभावपरिणामेन किं भवति । संचिउ जेण विलाइ पूर्वसंचितं कर्म येन वीतरागपरिणामेन विलयं विनाशं गच्छतीति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । कर्मोदयफलं भुञ्जानोऽपि ज्ञानी कर्मणापि न बध्यते इति सांख्यादयोऽपि वदन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति । भगवानाह । ते निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्रनिरपेक्षा वदन्ति तेन कारणेन तेषां दूषणमिति तात्पर्यम् ॥ ८० ॥
आगे जो उदयप्राप्त कर्मोंमें राग द्वेष नहीं करता, वह कर्मोंको भी नहीं बाँधता, ऐसा कहते हैं-निज कर्मफलं] अपने बाँधे हुए कर्मोंके फलको [भुंजानोऽपि] भोगता हुआ भी [तत्र] उस फलके भोगनेमें [यः] जो जीव [रागं] राग द्वेषको [न याति] नहीं प्राप्त होता [सः] वह [पुनः कर्म] फिर कर्मको [नैव] नहीं [बध्नाति] बाँधता, [येन] जिस कर्मबंधाभाव परिणामसे [संचितं] पहले बाँधे हुये कर्म भी [विलीयते] नाश हो जाते हैं || भावार्थ-निज शुद्धात्माके ज्ञानके अभावसे उपार्जन किये जो शुभ अशुभ कर्म उनके फलको भोगता हुआ भी वीतराग चिदानंद परमस्वभावरूप शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न अतीन्द्रियसुखरूप अमृतसे तृप्त हुआ जो रागी द्वेषी नहीं होता, वह जीव फिर ज्ञानावरणादि कर्मोंको नहीं बाँधता है, और नये कर्मोंका बंधका अभाव होनेसे प्राचीन कर्मोंकी निर्जरा ही होती है । यह संवरपूर्वक निर्जरा ही मोक्षका मूल है । ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया कि हे प्रभो, 'कर्मके फलको भोगता हुआ भी ज्ञानसे नहीं बँधता' ऐसा सांख्य आदिक भी कहते हैं, उनको तुम दोष क्यों देते हो ? उसका समाधान श्रीगुरु करते हैं-हम तो आत्मज्ञान संयुक्त ज्ञानी जीवोंकी अपेक्षासे कहते हैं, वे ज्ञानके प्रभावसे कर्मफल भोगते हुए भी राग द्वेष भाव नहीं करते । इसलिये उनके नये बंधका अभाव है, और जो मिथ्यादृष्टि ज्ञानभावसे बाह्य पूर्वोपार्जित कर्मफलको भोगते हुए रागी द्वेषी होते हैं, उनके अवश्य बंध होता है । इस तरह सांख्य नहीं कहता, वह वीतरागचारित्रसे रहित कथन करता है । इसलिए उन सांख्यादिकोंको दूषण दिया जाता है । यह तात्पर्य जानना ।।८०॥
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