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परमात्मप्रकाशः
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-दोहा ७९]
अप्पा मिल्लिवि णाणमउ चित्ति ण लग्गइ अण्णु । मरगउ जे परियाणियउ तहँ कच्चे कउ गण्णु ॥ ७८ ॥ आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं चित्ते न लगति अन्यत् ।
मरकतः येन परिज्ञातः तस्य काचेन कुतो गणना ॥ ७८ ॥ अप्पा इत्यादि । अप्पा मिल्लिवि आत्मानं मुक्त्वा । कथंभूतम् । णाणमउ ज्ञानमयं केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणमयं चित्ति मनसि ण लग्गइ न लगति न रोचते न प्रतिभाति । किम् । अण्णु निजपरमात्मस्वरूपादन्यत् । अत्रार्थ दृष्टान्तमाह । मरगउ जे परियाणियउ मरकतरनविशेषो येन परिज्ञातः। तहुं तस्य रत्नपरीक्षापरिज्ञानसहितस्य पुरुषस्य कच्चे कउ गण्णु काचेन किं गणनं किमपेक्षा तस्येत्यभिमायः ॥ ७८ ॥ अथ कर्मफलं भुञ्जानः सन् योऽसौ रागद्वेषं करोति स कर्म बनातीति कथयति
भुजंतु वि णिय-कम्म-फलु मोहइँ जो जि करेइ । भाउ असुंदर सुंदरु वि सो पर कम्मु जणेइ ॥ ७९ ॥ भुञ्जानोऽपि निजकर्मफलं मोहेन य एव करोति ।
भावं असुन्दरं सुन्दरमपि स परं कर्म जनयति ॥ ७९ ॥ भुंजंतु वि इत्यादि । भुंजंतु वि भुञ्जानोऽपि। किम् । णियकम्मफल वीतरागपरमाह्लादरूपशुद्धात्मानुभूतिविपरीतं निजोपार्जितं शुभाशुभकर्मफलं मोहई निर्मोहशुद्धात्मप्रतिकूलमोहोदयेन जो जि करेइ य एव पुरुषः करोति । कम् । भाउ भावं परिणामम् । किविशिष्टम् । असुंदर सुंदर वि अशुभं शुभमपि सो पर स एव भावः कम्मु जणेइ शुभाशुभं कर्म जनयति । अयमत्र भावार्थः । उदयागते कर्मणि योऽसौ स्वस्वभावच्युतः सन् रागद्वेषौ करोति रुचती । उसका दृष्टान्त यह है, कि [येन] जिसने [मरकतः] मरकतमणि (रत्न) [परिज्ञातः] जान लिया, [तस्य] उसको [काचेन] काँचसे [किं गहनं] क्या प्रयोजन है ? भावार्थ-जिसने रत्न पा लिया, उसको काचके टुकडोंकी क्या जरूरत है ? उसी तरह जिसका चित्त आत्मामें लग गया, उसके दूसरे पदार्थोंकी वाँछा नहीं रहती ॥७८॥
आगे कर्म-फलको भोगता हुआ जो राग द्वेष करता है, वह कर्मोंको बाँधता है-[य एव] जो जीव [निजकर्मफलं] अपने कर्मोके फलको [भुंजानोऽपि] भोगता हुआ भी [मोहेन] मोहसे [असुंदरं सुंदरं अपि] भले और बुरे [भावं] परिणामोंको [करोति] करता है. [सः] वह [परं] केवल [कर्म जनयति] कर्मको उपजाता (बाँधता) है ॥ भावार्थ-वीतराग परम आह्लादरूप शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत जो अशुद्ध रागादिक विभाव उनसे उपार्जन किये गये शुभ अशुभ कर्म उनके फलको भोगता हुआ जो अज्ञानी जीव मोहके उदयसे हर्ष विषाद भाव करता है, वह नये कर्मोंका बंध करता है । सारांश यह है, कि जो निज स्वभावसे च्युत हुआ उदयमें आये हुए कर्मोंमें राग द्वेष करता है, वही कर्मोंको बाँधता है ॥७९॥
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