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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अ० २, दोहा ७७
व्याप्तिरिति । अत्रेदं तात्पर्यम् । यस्मिन् शास्त्राभ्यासज्ञाने जातेऽप्यनाकुलवलक्षणपारमार्थिकसुखप्रतिपक्षभूता आकुलत्वोत्पादका रागादयो वृद्धिं गच्छन्ति तन्निश्चयेन ज्ञानं न भवति । कस्मात् । विशिष्टमोक्षफलाभावादिति ॥ ७६ ॥
अथ ज्ञानिनां निजशुद्धात्मस्वरूपं विहाय नान्यत्किमप्युपादेयमिति दर्शयतिअप्पा मिल्लिव णाणियहँ अण्णु ण सुंदरु वत्थु ।
तेण ण विसयहँ मणु रमइ जाणंतहँ परमत्थु ॥ ७७ ॥ आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानिनां अन्यन्न सुन्दरं वस्तु ।
तेन न विषयेषु मनो रमते जानतां परमार्थम् ॥ ७७ ॥
अप्पा इत्यादि । अप्पा मिलिवि शुद्धबुद्धैकस्वभावं परमात्मपदार्थ मुक्त्वा णाणियहं ज्ञानिनां मिथ्यात्वरागादिपरिहारेण निजशुद्धात्मद्रव्यपरिज्ञानपरिणतानां अण्णु ण सुंदरु वत्थु अन्यन्न सुन्दरं समीचीनं वस्तु प्रतिभाति येन कारणेन तेण ण विसयहं मणु रमइ तेन कारणेन शुद्धात्मोपलब्धिप्रतिपक्षभूतेषु पञ्चेन्द्रियविषयरूपकामभोगेषु मनो न रमते । किं कुर्वताम् । जाणतहं जानतां परमत्थु वीतरागसहजानन्दैकपारमार्थिक सुखाविनाभूतं परमात्मानमेवेति तात्पर्यम् ।। ७७ ।।
अथ तमेवार्थं दृष्टान्तेन समर्थयति
होनेपर भी यदि निराकुलता न हो, और आकुलताके उपजानेवाले आत्मिक सुखके वैरी रागादिक जो बुद्धिको प्राप्त हों, तो वह ज्ञान किस कामका ? ज्ञान तो वह है, जिससे आकुलता मिट जावे । इससे यह निश्चय हुआ, कि बाह्य पदार्थोंका ज्ञान मोक्षफलके अभावसे कार्यकारी नहीं है || ७६ ॥
आगे ज्ञानी जीवोंके निज शुद्धात्मभावके बिना अन्य कुछ भी आदरने योग्य नहीं है, ऐसा दिखलाते हैं - [ आत्मानं ] आत्माको [ मुक्त्वा ] छोडकर [ ज्ञानिनां ] ज्ञानियोंको [ अन्यद् वस्तु ] अन्य वस्तु [ सुंदरं न ] अच्छी नहीं लगती, [तेन] इसलिये [ परमार्थं जानतां ] परमात्म-पदार्थको जाननेवालोंका [मनः] मन [विषयाणां ] विषयोंमें [ न रमते ] नहीं लगता ।। भावार्थ - मिथ्यात्व रागादिकके छोडनेसे निज शुद्धात्म द्रव्यके यथार्थ ज्ञानकर जिनका चित्त परिणत हो गया है, ऐसे ज्ञानियोंको शुद्ध बुद्ध परम स्वभाव परमात्माको छोडकर दूसरी कोई भी वस्तु सुन्दर नहीं भासती । इसीलिये उनका मन कभी विषय-वासनामें नहीं रमता । ये विषय कैसे हैं ? शुद्धात्माकी प्राप्तिके शत्रु हैं । ऐसे ये भव- भ्रमणके कारण हैं, काम-भोगरूप पाँच इंद्रियोंके विषय उनमें मूढ जीवोंका ही मन रमता है, सम्यग्दृष्टिका मन नहीं रमता । कैसे हैं सम्यग्दृष्टि, जिन्होंने वीतराग सहजानंद अखंड सुखमें तन्मय परमात्मतत्त्वको जान लिया है । इसलिये यह निश्चय हुआ, कि जो विषयवासनाके अनुरागी हैं, वे अज्ञानी हैं, और जो ज्ञानीजन हैं, वे विषय विकारसे सदा विरक्त ही हैं ॥७७॥
आगे इसी कथनको दृष्टांतसे दृढ करते हैं - [ ज्ञानमयं आत्मानं ] केवलज्ञानादि अनंतगुणमयी आत्माको [मुक्त्वा ] छोडकर [ अन्यत् ] दूसरी वस्तु [चित्ते ] ज्ञानियोंके मनमें [न लगति ] नहीं
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