________________
- दोहा ७६ ]
परमात्मप्रकाशः
१९७
तेण शास्त्रादिजनितं ज्ञानमपि यत्तेन कार्य नास्ति । कस्मादिति चेत् । दुक्खहं कारणु दुःखस्य कारणं जेण येन कारणेन तउ वीतरागस्वसंवेद नरहितं तपः जीवहं जीवस्य होइ भवति खणेण क्षणमात्रेण कालेनेति । अत्र यद्यपि शास्त्रजनितं ज्ञानं स्वशुद्धात्मपरिज्ञानरहितं तपश्चरणं च मुख्यवृत्त्या पुण्यकारणं भवति तथापि मुक्तिकारणं न भवतीत्यभिप्रायः ॥ ७५ ॥ अथ येन मिथ्यात्वरागादिवृद्धिर्भवति तदात्मज्ञानं न भवतीति निरूपयतितं पिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवड्ढइ राउ । दियर - किरण पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ || ७६ ॥ तत् निजज्ञानमेव भवति नापि येन प्रवर्धते रागः ।
दिनकरकिरणानां पुरतः जीव किं विलसति तमोरागः ॥ ७६ ॥
तं इत्यादि । तं तत् णियणाणु जि होइ ण वि निजज्ञानमेव न भवति वीतरागनित्यानन्दैकस्त्रभावनिजपरमात्मतत्त्वपरिज्ञानमेव न भवति । येन ज्ञानेन किं भवति । जेण पवड्ढइ येन प्रवर्धते । कोऽसौ । राउ शुद्धात्मभावनासमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दप्रतिबन्धकपञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषरागः । अत्र दृष्टान्तमाह । दिणयरकिरणहं पुरउ जिय दिनकरकिरणानां पुरतो हे जीव किं विलसह किं विलसति किं शोभते अपि तु नैव । कोऽसौ । तमराउ तमोरागस्तमोइन्द्रियोंके भोगोंसे जिसका चित्त रंग रहा है, ऐसा अज्ञानी जीव रूप लावण्य सौभाग्यका अभिलाषी वासुदेव चक्रवर्ती- पदके भोगोंकी वांछा करे, दान पूजा तपश्चरणादिकर भोगोंकी अभिलाषा करे, वह निदानबंध है, सो यह बडा शल्य (काँटा ) है । इस शल्यसे रहित जो आत्मज्ञान उसके बिना शब्द-शास्त्रादिका ज्ञान मोक्षका कारण नहीं है । क्योंकि वीतरागस्वसंवेदनज्ञान रहित तप भी दुःखका कारण है । ज्ञान रहित तपसे जो संसारकी सम्पदायें मिलती हैं, वे क्षणभंगुर हैं । इसलिये यह निश्चय हुआ, कि आत्मज्ञानसे रहित जो शास्त्रका ज्ञान और तपश्चरणादि हैं, उनसे मुख्यताकर पुण्यका बंध होता है । उस पुण्यके प्रभावसे जगतकी विभूति पाता है, वह क्षणभंगुर है । इसलिये अज्ञानियोंका तप और श्रुत यद्यपि पुण्यका कारण है, तो भी मोक्षका कारण नहीं है ||७५ ||
आगे जिससे मिथ्यात्व रागादिककी वृद्धि हो, वह आत्मज्ञान नहीं है, ऐसा निरूपण करते हैं[जीव] हे जीव, [ तत् ] वह [ निजज्ञानं एव] वीतराग नित्यानंद अखंडस्वभाव परमात्मतत्त्वका परिज्ञान ही [ नापि ] नहीं [ भवति ] है, [ येन ] जिससे [ रागः ] परद्रव्यमें प्रीति [ प्रवर्धते ] बढे, [दिनकरकिरणानां पुरतः ] सूर्यकी किरणोके आगे [ तमोरागः ] अन्धकारका फैलाव [ किं विलसति ] कैसे शोभायमान हो सकता है ? नहीं हो सकता | भावार्थ- शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग परम आनंद उसके शत्रु पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषा जिसमें हो, वह निज (आत्म) ज्ञान नहीं है, अज्ञान ही है । जिस जगह वीतरागभाव है, वही सम्यग्ज्ञान है । इसी बातको दृष्टांत देकर दृढ करते हैं, सो सुनो । हे जीव, जैसे सूर्यके प्रकाशके आगे अन्धेरा नहीं शोभा देता, वैसे ही आत्मज्ञानमें विषयोंकी अभिलाषा ( इच्छा) नहीं शोभती । यह निश्चयसे जानना । शास्त्रका ज्ञान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org