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________________ - दोहा ६८ ] १८९ यिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसंपराययथाख्यातभेदेन पञ्चधा संयमः सोऽपि लभ्यते तेषामेव । सीलु स्वात्मना कृत्वा स्वात्मनिवृत्तिर्वर्तनं इति निश्चयव्रतं, व्रतस्य रागादिपरिहारेण परिरक्षणं निश्चयशीलं तदपि तेषामेव । तउ द्वादशविधतपश्चरणबलेन परद्रव्येच्छानिरोधं कृत्वा शुद्धात्मनि प्रतपनं विजयनं तप इति । तदपि तेषामेव । सुद्धहं शुद्धोपयोगिनां दंसणु छद्मस्थावस्थायां स्वशुद्धात्मनि रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं केवलज्ञानोत्पत्तौ सत्यां तस्यैव फलभूतं अनीहितविपरीताभिनिवेशरहितं परिणामलक्षणं क्षायिकसम्यक्त्वं केवलदर्शनं वा तेषामेव । णाणु वीतरागस्वसंवेदनज्ञानं तस्यैव फलभूतं केवलज्ञानं वा सुद्धहं शुद्धोपयोगिनामेव । कम्मक्खउ परमात्मस्वरूपोपलब्धिलक्षणो द्रव्यभावकर्मक्षयः हवइ तेषामेव भवति । सुद्धउ शुद्धोपयोगपरिणामस्तदाधारपुरुषो वा तेण पहाणु येन कारणेन पूर्वोक्ताः संयमादयो गुणाः शुद्धोपयोगे लभ्यन्ते तेन कारणेन स एव प्रधान उपादेयः इति तात्पर्यम् । तथा चोक्तं शुद्धोपयोगफलम् – “सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं । सुद्धस्स य णिव्वाणं सो चिय सुद्धो णमो तस्स ॥" ॥६७॥ अथ निश्वयेन स्वकीयशुद्धभाव एव धर्म इति कथयति-— परमात्मप्रकाशः Jain Education International भाउ विसुद्ध अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु | च-गह- दुक्खहँ जो धरइ जीउ पडतउ एहु ॥ ६८ ॥ उन शुद्ध चेतनोपयोगियोंके ही होता है । शील अर्थात् अपनेसे अपने आत्मामें प्रवृत्ति करना यह निश्चयशील, रागादिके त्यागनेसे शुद्ध भावकी रक्षा करना वह भी निश्चयशील है, और देवांगना, मनुष्यनी, तिर्यंचनी, तथा काठ पत्थर चित्रामादिकी अचेतन स्त्री-ऐसे चार प्रकारकी स्त्रियोंका मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनासे त्याग करना, वह व्यवहारशील है, ये दोनों शील शुद्ध चित्तवालोंके ही होते हैं । तप अर्थात् बारह तरहका तप उसके बलसे भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्मरूप सब वस्तुओं में इच्छा छोडकर शुद्धात्मामें मग्न रहना, काम क्रोधादि शत्रुओंके वशमें न होना, प्रतापरूप विजयरूप जितेंद्रिय रहना । यह तप शुद्ध चित्तवालोंके ही होता है । दर्शन अर्थात् साधक अवस्थामें तो शुद्धात्मामें रुचिरूप सम्यग्दर्शन और केवली अवस्थामें उस सम्यग्दर्शनका फलरूप संशय, विमोह, विभ्रम रहित निज परिणामरूप क्षायिकसम्यक्त्व केवलदर्शन यह भी शुद्धोंके ही होता है । ज्ञान अर्थात् वीतराग स्वसंवेदनज्ञान और उसका फल केवलज्ञान वह भी शुद्धोपयोगियोंके ही होता है, और कर्मक्षय अर्थात् द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्मका नाश तथा परमात्मस्वरूपकी प्राप्ति वह भी शुद्धोपयोगियोंके ही होती है । इसलिये शुद्धोपयोग- परिणाम और उन परिणामोंका धारण करनेवाला पुरुष ही जगतमें प्रधान हैं । क्योंकि संयमादि सर्व गुण शुद्धोपयोगमें ही पाये जाते हैं । इसलिये शुद्धोपयोगके समान अन्य नहीं है, ऐसा तात्पर्य जानना । ऐसा ही अन्य ग्रन्थोंमें हरएक जगह 'शुद्धस्य' इत्यादिसे कहा गया है । उसका भावार्थ यह है, कि शुद्धोपयोगी ही मुनि-पद कहा है, और उसीके दर्शन ज्ञान कहे हैं । उसीके निर्वाण है, और वही शुद्ध अर्थात् रागादि रहित है । उसीको हमारा नमस्कार है ॥६७॥ आगे यह कहते हैं कि निश्चयसे अपना शुद्ध भाव ही धर्म है - [ विशुद्धः भावः ] मिथ्यात्व For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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