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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ६८भावो विशुद्धः आत्मीयः धर्म भणित्वा लाहि । चतुर्गतिदुःखेभ्यः यो धरति जीवं पतन्तमिमम् ॥ ६८ ॥ भाउ इत्यादि । भाउ भावः परिणामः । कथंभूतः। विसुद्धउ विशेषेण शुद्धो मिथ्यात्ररागादिरहितः अप्पणउ आत्मीयः धम्मु भणेविणु लेहु धर्म भणिवा मखा प्रगृह्णीथाः। यो धर्मः किं करोति । चउगइदुक्खहं जो धरइ चतुर्गतिदुःखेभ्यः सकाशात् उद्धत्य यः कर्ता धरति। कं धरति । जीउ पडतउ एहु जीवमिमं प्रत्यक्षीभूतं संसारे पतन्तमिति । तद्यथा। धर्मशब्दस्य व्युत्पत्तिः क्रियते। संसारे पतन्तं प्राणिनमुद्धृत्य नरेन्द्रनागेन्द्रदेवेन्द्रवन्ध मोक्षपदे धरतीति धर्म इति धर्मशब्देनात्र निश्चयेन जीवस्य शुद्धपरिणाम एव ग्राह्यः । तस्य तु मध्ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन सर्वे धर्मा अन्तर्भूता लभ्यन्ते । तथा अहिंसालक्षणो धर्मः, सोऽपि जीवशुद्धभावं विना न संभवति । सागारानगारलक्षणो धर्मः सोऽपि तथैव उत्तमक्षमादिदशविधो धर्मः सोऽपि जीवशुद्धभावमपेक्षते । 'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः' इत्युक्तं यद्धर्मलक्षणं तदपि तथैव । रागद्वेषमोहरहितः परिणामो धर्मः सोऽपि जीवशुद्धस्वभाव एव । वस्तुस्वभावो धर्मः सोऽपि तथैव । तथा चोक्तम्-" धम्मो वत्थुसहावो" इत्यादि । एवंगुणविशिष्टो धर्मश्चतुर्गतिदुःखेषु पतन्तं धरतीति धर्मः । अत्राह शिष्यः। पूर्वसूत्रे भणितं शुद्धोपयोगमध्ये संयमादयः सर्वे रागादिसे रहित जो शुद्ध परिणाम है, वही [आत्मीयः] अपना है और अशुद्ध परिणाम अपने नहीं हैं, सो शुद्ध भावको ही [धर्म भणित्वा] धर्म समझकर [गृहीथाः] अंगीकार करो । [यः] जो आत्मधर्म [चतुर्गतिदुःखेभ्यः] चारों गतियोंके दुःखोंसे [पतंतं] संसारमें पडे हुए [इमं जीवं] इस जीवको निकालकर [धरति] आनन्द-स्थानमें रखता है ॥ भावार्थ-धर्म शब्दका शब्दार्थ ऐसा है, कि संसारमें पडते हुए प्राणियोंको निकालकर मोक्षपदमें रखे, वह धर्म है, वह मोक्षपद देवेन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रोंकर वंदने योग्य है । जो आत्माका निज स्वभाव है वही धर्म है, उसीमें जिनभाषित सब धर्म पाये जाते हैं। जो दयास्वरूप धर्म है, वह भी जीवके शुद्ध भावोंके बिना नहीं होता, यति श्रावकका धर्म भी शुद्ध भावोंके बिना नहीं होता, उत्तम क्षमादि दशलक्षणधर्म भी शुद्ध भाव बिना नहीं हो सकता, और रत्नत्रयधर्म भी शुद्ध भावोंके बिना नहीं हो सकता । ऐसा ही कथन जगह जगह ग्रंथोंमें है, “सद्वृष्टि" इत्यादि श्लोकसे-उसका अर्थ यह है, कि धर्मके ईश्वर भगवानने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनोंको धर्म कहा है । जिस धर्मके ये ऊपर कहे गये लक्षण हैं, वह राग, द्वेष, मोह रहित परिणाम-धर्म है, वह जीवका स्वभाव ही है, क्योंकि वस्तुका स्वभाव ही धर्म है । ऐसा दूसरी जगह भी “धम्मो” इत्यादि गाथासे कहा है, कि जो आत्मवस्तुका स्वभाव है, वह धर्म है, उत्तम क्षमादि भावरूप दस प्रकारका धर्म है, रत्नत्रय धर्म है, और जीवोंकी रक्षा यह धर्म है । यह जिनभाषित धर्म चतुर्गतिके दुःखोंमें पडते हुए जीवोंको उद्धारता है । यहाँ शिष्यने प्रश्न किया, कि जो पहले दोहेमें तो तुमने शुद्धोपयोगमें संयमादि सब गुण कहे, और यहाँ आत्माका शुद्ध परिणाम ही धर्म कहा है, उसमें धर्म पाये जाते हैं, तो पहले दोहेमें और इसमें क्या भेद है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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