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________________ - दोहा ६४ ] परमात्मप्रकाशः १८५ निर्वाणमिति । तद्यथा । सहजशुद्धज्ञानानन्दैकस्वभावात्परमात्मनः सकाशाद्विपरीतेन छेदनादिनारकतिर्यग्गतिदुःखदानसमर्थेन पापकर्मोदयेन नारकतिर्यग्गतिभाजनो भवति जीवः । तस्मादेव शुद्धात्मनो विलक्षणेन पुण्योदयेन देवो भवति । तस्मादेव शुद्धात्मनो विपरीतेन पुण्यपापद्वयेन मनुष्यो भवति । तस्यैव विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावस्य निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण शुद्धोपयोगेन मुक्तो भवतीति तात्पर्यार्थः । तथा चोक्तम् - " पावेण णरयतिरियं गम्म धम्मेण देवलोमि । मिस्सेण माणुसत्तं दोन्हं पि खएण णिव्वाणं ।। " ॥ ६३ ॥ अथ निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनस्वरूपे स्थित्वा व्यवहारप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनां त्यजन्तीति त्रिकलेन कथयति — वंदणु दिणु पडिकमणु पुण्णहँ कारणु जेण । करइ करावइ अणुमणइ एक्कु वि णाणि ण तेण ॥ ६४ ॥ वन्दनं निन्दनं प्रतिक्रमणं पुण्यस्य कारणं येन । करोति कारयति अनुमन्यते एकमपि ज्ञानी न तेन ॥ ६४ ॥ वंदणु इत्यादि । वंदणु णिंदणु पडिकमणु वन्दननिन्दनमतिक्रमणत्रयम् । किंविशिष्टम् । yout कारणु पुण्यस्य कारणं जेण येन कारणेन करइ करावइ अणुमणह करोति कारयति अनुमोदयति, एक्कु वि एकमपि, णाणि ण तेण ज्ञानी पुरुषो न तेन कारणेनेति । [विजानीहि] जानो ।। भावार्थ- सहज शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव जो परमात्मा है, उससे विपरीत जो पापकर्म उसके उदयसे नरक तिर्यंचगतिका पात्र होता है, आत्मस्वरूपसे विपरीत शुभ कर्मोंके उदयसे देव होता है, दोनोंके मेलसे मनुष्य होता है, और शुद्धात्मस्वरूपसे विपरीत इन दोनों पुण्य पापोंके क्षयसे निर्वाण (मोक्ष) मिलता है । मोक्षका कारण एक शुद्धोपयोग है, वह शुद्धोपयोग निज शुद्धात्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप है । इसलिये इस शुद्धोपयोग के बिना किसी तरह भी मुक्ति नहीं हो सकती, यह सारांश जानों। ऐसा ही सिद्धांत -ग्रन्थोंमें भी हरएक जगह कहा गया है । जैसे - यह जीव पापसे नरक तिर्यंचगतिको जाता है, और धर्म (पुण्य) से देवलोकमें जाता है, पुण्य पाप दोनोंके मेलसे मुनष्यदेहको पाता है और दोनोंके क्षयसे मोक्ष पाता है || ६३|| आगे निश्चयप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान, और निश्चयआलोचनारूप जो शुद्धोपयोग उसमें ठहरकर व्यवहारप्रतिक्रमण, व्यवहारप्रत्याख्यान, और व्यवहार आलोचनारूप शुभोपयोगको छोडे, ऐसा कहते हैं - [ वंदनं ] पंचपरमेष्ठीकी वंदना, [ निंदनं] अपने अशुभ कर्मकी निंदा, और [प्रतिक्रमणं] अपराधोंकी प्रायश्चित्तादि विधिसे निवृत्ति, ये सब [ येन पुण्यस्य कारणं ] जो पुण्यके कारण हैं, मोक्षके कारण नहीं हैं, [तेन ] इसलिये पहली अवस्थामें पापके दूर करने के लिये ज्ञानी पुरुष इनको करता है, कराता है, और करते हुएको भला जानता है तो भी निर्विकल्प शुद्धोपयोग अवस्थामें [ ज्ञानी ] ज्ञानी जीव [ एकमपि ] इन तीनोंमेंसे एक भी [ न करोति ] न तो करता है, [ कारयति ] न कराता है, और न [ अनुमन्यते ] करते हुएको भला जानता है | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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