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________________ १८४ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ६३देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां यो विद्वेष करोति । नियमेन पापं भवति तस्य येन संसारं भ्रमति ॥ ६२॥ देवहं इत्यादि । देवहं सत्थहं मुणिवरहं जो विद्देसु करेइ देवशास्त्रमुनीनां साक्षात्पुण्यबन्धहेतुभूतानां परंपरया मुक्तिकारणभूतानां च योऽसौ विद्वेषं करोति । तस्य किं भवति । णियमें पाउ हवेइ तसु नियमेन पापं भवति तस्य । येन पापबन्धेन किं भवति । जें संसारु भमेह येन पापेन संसारं भ्रमतीति । तद्यथा । निजपरमात्मपदार्थोपलम्भरुचिरूपं निश्चयसम्यत्वकारणस्य तत्त्वार्थश्रद्धानरूपव्यवहारसम्यक्त्वस्य विषयभूतानां देवशास्त्रयतीनां योऽसौ निन्दा करोति स मिथ्यादृष्टिर्भवति । मिथ्यावेन पापं बनाति, पापेन चतुर्गतिसंसारं भ्रमतीति भावार्थः ॥ ६२॥ अथ पूर्वसूत्रद्वयोक्तं पुण्यपापफलं दर्शयति-- पावे णारउ तिरिउ जिउ पुण्णे अमरु वियाणु । मिस्से माणुस-गई लहइ दोहि वि खइ णिव्वाणु ॥ ६३ ।। पापेन नारकः तिर्यग् जीवः पुण्येनामरो विजानीहि । मिश्रेण मनुष्यगतिं लभते द्वयोरपि क्षये निर्वाणम् ॥ ६३ ॥ पावें इत्यादि । पावें पापेन णारउ तिरिउ नारको भवति तिर्यग्भवति । कोऽसौ । जिउ जीवः पुण्णे अमरु वियाणु पुण्येनामरो देवो भवतीति जानीहि । मिस्से माणुसगइ लहइ मिश्रेण पुण्यपापद्वयेन मनुष्यगतिं लभते । दोहि वि खइ णिव्वाणु द्वयोरपि कर्मक्षयेऽपि आगे देव शास्त्र गुरुकी जो निंदा करता है, उसके महान् पापका बंध होता है, वह पापी पापके प्रभावसे नरक निगोदादि खोटी गतिमें अनंतकाल तक भटकता है-[देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां] वीतरागदेव, जिनसूत्र, और निर्ग्रथमुनियोंसे [यः] जो जीव [विद्वेषं] द्वेष [करोति] करता है, [तस्य] उसके [नियमेन] निश्चयसे [पापं] पाप [भवति] होता है, [येन] जिस पापके कारणसे वह जीव [संसारं] संसारमें [भ्रमति] भ्रमण करता है । अर्थात् परम्पराय मोक्षके कारण और साक्षात् पुण्यबंधके कारण जो देव शास्त्र गुरु हैं, इनकी जो निंदा करता है, उसके नियमसे पाप होता है, पापसे दुर्गतिमें भटकता है ।। भावार्थ-निज परमात्मद्रव्यकी प्राप्तिकी रुचि वही निश्चयसम्यक्त्व, उसका कारण तत्त्वार्थश्रद्धानरूप व्यवहारसम्यक्त्व, उसके मूल अरहंत देव, निर्ग्रन्थ गुरु, और दयामयी धर्म, इन तीनोंकी जो निन्दा करता है, वह मिथ्यादृष्टि होता है । वह मिथ्यात्वका महान् पाप बाँधता है । उस पापसे चतुर्गति संसारमें भ्रमता है ॥६२॥ आगे पहले दो सूत्रोंमें कहे गये पुण्य और पाप फल हैं, उनको दिखाते हैं-[जीवः] यह जीव [पापेन] पापके उदयसे [नारकः तिर्यग्] नरकगति और तिर्यंचगति पाता है, [पुण्येन] पुण्यसे [अमरः] देव होता है, [मिश्रेण] पुण्य और पाप दोनोके मेलसे [मनुष्यगतिं] मनुष्यगतिको [लभते] पाता है, और [द्वयोरपि क्षये] पुण्य पाप दोनोंके ही नाश होनेसे [निर्वाणं] मोक्षको पाता है, ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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