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________________ १८६ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ६५तथाहि । शुद्धनिर्विकल्पपरमात्मतत्त्वभावनाबलेन दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षास्मरणरूपाणामतीतरागादिदोषाणां निराकरणं निश्चयप्रतिक्रमणं भवति, वीतरागचिदानन्दैकानुभूतिभावनाबलेन भाविभोगाकांक्षारूपाणां रागादीनां त्यजनं निश्चयपत्याख्यानं भण्यते, निजशुद्धात्मोपलम्भवलेन वर्तमानोदयागतशुभाशुभनिमित्तानां हर्षविषादादिपरिणामानां निजशुद्धात्मद्रव्यात् पृथक्करणं निश्चयालोचनमिति । इत्थंभूते निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनत्रये स्थिखा योऽसौ व्यवहारपतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनत्रयं तत्रयानुकूलं वन्दननिन्दनादिशुभोपयोगं च त्यजन् स ज्ञानी भण्यते न चान्य इति भावार्थः ॥६४॥ अथ वंदणु णिंद्णु पडिकमणु णाणिहि एहु ण जुत्तु । एकु जि मेल्लिवि णाणमउ सुद्धउ भाउ पवित्तु ।। ६५ ।। वन्दनं निन्दनं प्रतिक्रमणं ज्ञानिनां इदं न युक्तम् । एकमेव मुक्त्वा ज्ञानमयं शुद्ध भावं पवित्रम् ॥ ६५ ॥ वंदणु जिंदणु पडिकमणु वन्दननिन्दनप्रतिक्रमणत्रयम् । णाणिहु एहु ण जुत्तु ज्ञानिनामिदं न युक्तम् । किं कृता । एक्कु जि मेल्लिवि एकमेव मुक्त्वा । एकं कम् । णाणमउ भावार्थ-केवल शुद्ध स्वरूपमें जिसका चित्त लगा हुआ है, ऐसा निर्विकल्प परमात्मतत्त्वकी भावनाके बलसे देखे सुने और अनुभव किये भोगोंकी वांछारूप जो भूतकालके रागादि दोष उनका दूर करना वह निश्चयप्रतिक्रमण; वीतराग चिदानन्द शुद्धात्माकी अनुभूतिकी भावनाके बलसे होनेवाले भोगोंकी वांछारूप रागादिकका त्याग वह निश्चयप्रत्याख्यान; और निज शुद्धात्माकी प्राप्तिके बलसे वर्तमान उदयमें आये जो शुभ अशुभके कारण हर्ष विषादादि अशुद्ध परिणाम उनको निज शुद्धात्मद्रव्यसे जुदा करना वह निश्चयआलोचना । इस तरह निश्चयप्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और आलोचनामें ठहरकर जो कोई व्यवहारप्रतिक्रमण, व्यवहारप्रत्याख्यान, व्यवहार-आलोचना, इन तीनोंके अनुकूल वन्दना निंदा आदि शुभोपयोग है, उनको छोडता है वही ज्ञानी कहा जाता है, अन्य नहीं । सारांश यह है कि ज्ञानी जीव पहले तो अशुभको त्यागकर शुभमें प्रवृत्त होता है, बाद शुभको भी छोडकर शुद्धमें लग जाता है । पहले किये हुए अशुभ कर्मोंकी निवृत्ति वह व्यवहारप्रतिक्रमण, अशुभ-परिणाम होनेवाले हैं उनका रोकना वह व्यवहारप्रत्याख्यान, और वर्तमानकालमें शुभकी प्रवृत्ति अशुभकी निवृत्ति वह व्यवहारआलोचना है । व्यवहारमें तो अशुभका त्याग और शुभका अंगीकार होता है, और निश्चयमें शुभ अशुभ दोनोंका ही त्याग होता है ||६४।। आगे इसी कथनको दृढ करते हैं-[वंदनं निंदनं प्रतिक्रमणं] वंदन, निंदा, और प्रतिक्रमण [इदं] ये तीनों [ज्ञानिनां] पूर्ण ज्ञानियोंको [युक्तं न] ठीक नहीं हैं, [एकमेव] एक [ज्ञानमयं] ज्ञानमय [शुद्धं पवित्रं भावं] पवित्र शुद्ध भावको [मुक्त्वा] छोडकर अर्थात् इसके सिवाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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