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-दोहा ५८ ]
परमात्मप्रकाशः मा पुनः पुण्यानि भद्राणि ज्ञानिनः तानि भणन्ति ।
जीवस्य राज्यानि दत्त्वा लघु दुःखानि यानि जनयन्ति ॥ ५७ ॥ मं पुणु इत्यादि । मं पुणु मा पुनः न पुनः पुण्णइं भल्लाइं पुण्यानि भद्राणि भवन्तीति णाणिय ताइं भणंति ज्ञानिनः पुरुषास्तानि पुण्यानि कर्मतापन्नानि भणन्ति । यानि किं कुर्वन्ति । जीवहं रज्जइं देवि लहु दुक्खइं जाइंजणंति यानि पुण्यकर्माणि नीवस्य राज्यानि दत्त्वा लघु शीघ्रं दुःखानि जनयन्ति । तद्यथा। निजशुद्धात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दैकरूपसुखानुभवविपरीतेन दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबन्धपूर्वकज्ञानतपोदानादिना यान्युपार्जितानि पुण्यकर्माणि तानि हेयानि । कस्मादिति चेत् । निदानबन्धोपार्जितपुण्येन भवान्तरे राज्यादिविभूतौ लब्धायां तु भोगान् त्यक्तुं न शक्नोति तेन पुण्येन नरकादिदुःखं लभते । रावणादिवत् । तेन कारणेन पुण्यानि हेयानीति । ये पुनर्निदानरहितपुण्यसहिताः पुरुषास्ते भवान्तरे राज्यादिभोगे लब्धेऽपि भोगांस्त्यक्त्वा जिनदीक्षां गृहीखा चोर्ध्वगतिगामिनो भवन्ति बलदेवादिवदिति भावार्थः। तथा चोक्तम्-'ऊर्ध्वगा बलदेवाः स्युर्निर्निदाना भवान्तरे'। इत्यादिवचनात् ॥ ५७ ॥ ___ अथ निर्मलसम्यक्त्वाभिमुखानां मरणमपि भद्रं, तेन विना पुण्यमपि समीचीनं न भवतीति प्रतिपादयति
वर णिय-दंसण-अहिमुहउ मरणु वि जीव लहेसि ।
मा णिय-दंसण-विम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि ।। ५८ ॥ उत्पन्न कराते हैं, इसलिये अच्छे नहीं हैं-[पुनः] फिर [तानि पुण्यानि] वे पुण्य भी [मा भद्राणि] अच्छे नहीं हैं, [यानि] जो [जीवस्य] जीवको [राज्यानि दत्त्वा] राज देकर [लघु] शीघ्र ही [दुःखानि] नरकादि दुःखोंको [जनयंति] उपजाते हैं, [ज्ञानिनः] ऐसा ज्ञानीपुरुष [भणंति] कहते हैं । भावार्थ-निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग परमानन्द अतींद्रियसुखका अनुभव उससे विपरीत जो देखे सुने भोगे इन्द्रियोंके भोग उनकी वांछारूप निदानबंधपूर्वक दान तप आदिकसे उपार्जन किये जो पुण्यकर्म हैं, वे हेय हैं । क्योंकि वे निदानबंधसे उपार्जन किये पुण्यकर्म जीवको दूसरे भवमें राजसम्पदा देते हैं । उस राज्यविभूतिको अज्ञानी जीव पाकर विषय भोगोंको छोड नहीं सकता, उससे नरकादिकके दुःख पाता है, रावणकी तरह । इसलिये अज्ञानियोंके पुण्य-कर्म भी होता है, और जो निदानबंध रहित ज्ञानी पुरुष हैं, वे दूसरे भवमें राज्यादि भोगोंको पाते हैं, तो भी भोगोंको छोडकर जिनराजकी दीक्षा धारण करते हैं । धर्मको सेवनकर ऊर्ध्वगतिगामी बलदेव आदिककी तरह होते हैं । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि भवान्तरमें निदानबंध नहीं करते हुए जो महामुनि हैं, वे महान् तपकर स्वर्गलोक जाते हैं । वहाँसे चयकर बलभद्र होते हैं । वे देवोंसे अधिक सुख भोगकर राज्यका त्याग करके मुनिव्रतको धारणकर या तो केवलज्ञान पाकर मोक्षको ही पधारते हैं, या बडी ऋद्धिके धारी देव होते हैं, फिर मनुष्य होकर मोक्षको पाते हैं ।५७)
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