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________________ १७८ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ५७पूर्वोक्तानि पापानि । कथंभूतानि । जीवहं दुक्खई जणिवि लहु सिवमई जाई कुणंति जीवानां दुःखानि जनिखा लघु शीघ्रं शिवमति मुक्तियोग्यमतिं यानि कुर्वन्ति । अयमत्राभिप्रायः। यत्र भेदाभेदरत्नत्रयात्मकं श्रीधर्म लभते जीवस्तत्पापजनितदुःखमपि श्रेष्ठमिति कस्मादिति चेत् । 'आर्ता नरा धर्मपरा भवन्ति' इति वचनात् ॥ ५६ ॥ ___ अथ निदानबन्धोपार्जितानि पुण्यानि जीवस्य राज्यादिविभूतिं दत्त्वा नारकादिदुःखं जनयन्तीति हेतोः समीचीनानि न भवन्तीति कथयति मं पुणु पुण्णइँ भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति । जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खइँ जाइँ जणंति ॥ ५७ ।। जीव पाप करके नरकमें गया, वहाँ पर महान दुःख भोगे, उससे कोई समय किसी जीवके सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है । क्योंकि उस जगह सम्यक्त्वकी प्राप्तिके तीन कारण हैं। पहला तो यह है, कि तीसरे नरकतक देवता उसे संबोधनेको (चेतावनेको) जाते हैं, सो कभी कोई जीवके धर्म सुननेसे सम्यक्त्व उत्पन्न हो जावे, दूसरा कारण-पूर्वभवका स्मरण और तीसरा नरककी पीडासे दुःखी हुआ नरकको महान् दुःखका स्थान जान नरकके कारण जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह और आरंभादिक है, उनको खराब जानकर पापसे उदास होवे । तीसरे नरकतक ये तीन कारण हैं । आगेके चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें नरकमें देवोंका गमन न होनेसे धर्म-श्रवण तो है नहीं, लेकिन जातिस्मरण है, तथा वेदनासे दु:खी होकर पापसे भयभीत होना-ये दो ही कारण हैं । इन कारणोंको पाकर किसी जीवके सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है । इस नयसे कोई भव्यजीव पापके उदयसे खोटी गतिमें गया, और वहाँ जाकर यदि सुलट जावे, तथा सम्यक्त्व पावे, तो वह कुगति भी बहुत श्रेष्ठ है । यही श्रीयोगीन्द्राचार्यने मूलमें कहा है-जो पाप जीवोंको दुःख प्राप्त कराकर फिर शीघ्र ही मोक्षमार्ग में बुद्धिको लगावे, तो वे अशुभ भी अच्छे हैं । तथा जो अज्ञानी जीव किसी समय अज्ञान तपसे देव भी हुआ और देवसे मरकर एकेंद्रिय हुआ तो वह देव-पर्याय पाना किस कामका ? अज्ञानीके देव-पद पाना भी वृथा है । यदि कभी ज्ञानके प्रसादसे उत्कृष्ट देव होकर बहुत कालतक सुख भोगकर देवसे मनुष्य होकर मुनिव्रत धारण करके मोक्षको पावे, तो उसके समान दूसरा क्या होगा ? यदि नरकसे भी निकलकर कोई भव्यजीव मनुष्य होकर महाव्रत धारण करके मुक्ति पावे, तो वह भी अच्छा है । ज्ञानी पुरुष उन पापियोंको भी श्रेष्ठ कहते हैं, जो पापके प्रभावसे दुःख भोगकर उस दुःखसे डरके दुःखके मूलकारण पापको जानके उस पापसे उदास होवें, वे प्रशंसा करने योग्य हैं, और पापी जीव प्रशंसाके योग्य नहीं हैं, क्योंकि पापक्रिया हमेशा निंदनीय है । भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूप श्रीवीतरागदेवके धर्मको जो धारण करते हैं वे श्रेष्ठ हैं । यदि सुखी धारण करे तो भी ठीक, और दुःखी धारण करे तब भी ठीक । क्योंकि शास्त्रका वचन है, कि कोई महाभाग दुःखी हुए ही धर्ममें लवलीन होते हैं ॥५६॥ आगे निदानबंधसे उपार्जन किये हुए पुण्यकर्म जीवको राज्यादि विभूति देकर नरकादि दुःख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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