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________________ १८० ___ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ५८वरं निजदर्शनाभिमुखः मरणमपि जीव लभस्व । मा निजदर्शनविमुखः पुण्यमपि जीव करिष्यसि ॥ ५८ ॥ वर इत्यादि । वर णियदंसणअहिमुहउ वरं किंतु निजदर्शनाभिमुखः सन् मरणु वि जीव लहेसि मरणमपि हे जीव ! लभस्व भज । मा णियदंसणविम्मुहउ मा पुनर्निजदर्शनविमुखः सन् पुण्णु वि जीव करेसि पुण्यमपि हे जीच करिष्यसि । तथा च स्वकीयनिर्दोषिपरमात्मानुभूतिरुचिरूपं त्रिगुप्तिगुप्तलक्षणनिश्चयचारित्राविनाभूतं वीतरागसंज्ञं निश्चयसम्यक्त्वं भण्यते तदभिमुखः सन् हे जीव मरणमपि लभस्व दोषो नास्ति तेन विना पुण्यं मा कार्षीरिति । अत्र सम्यक्त्वरहिता जीवाः पुण्यसहिता अपि पापजीवा भण्यन्ते । सम्यक्त्वसहिताः पुनः पूर्वभवान्तरोपार्जितपापफलं भुञ्जाना अपि पुण्यजीवा भण्यन्ते येन कारणेन, तेन कारणेन सम्यक्त्वसहितानां मरणमपि भद्रम् । सम्यक्त्वरहितानां च पुण्यमपि भद्रं न भवति । कस्मात् । तेन निदानबद्धपुण्येन भवान्तरे भोगान् लब्ध्वा पश्चान्नरकादिकं गच्छन्तीति भावार्थः । तथा चोक्तम्-“वरं नरकवासोऽपि सम्यक्त्वेन हि संयुतः। न तु सम्यक्त्वहीनस्य निवासो दिवि राजते ॥" ॥ ५८ ॥ आगे ऐसा कहते हैं कि निर्मल सम्यक्त्वधारी जीवोंको मरण भी सुखकारी है, उनका मरना अच्छा है, और सम्यक्त्वके विना पुण्यका उदय भी अच्छा नहीं है-जीव] हे जीव, [निजदर्शनाभिमुखः] जो अपने सम्यग्दर्शनके सन्मुख होकर [मरणमपि] मरणको भी [लभस्व वरं] पावे, तो अच्छा है, परन्तु [जीव] हे जीव, [निजदर्शनविमुखः] अपने सम्यग्दर्शनसे विमुख हुआ [पुण्यमपि] पुण्य भी [करिष्यसि] करे [मा वरं] तो अच्छा नहीं ॥ भावार्थ-निर्दोष निज परमात्माकी अनुभूतिकी रुचिरूप तीन गुप्तिमयी जो निश्चयचारित्र उससे अविनाभावी (तन्मयी) जो वीतरागनिश्चयसम्यक्त्व उसके सन्मुख हुआ हे जीव, यदि तू मरण भी पावे तो दोष नहीं, और उस सम्यक्त्वके बिना मिथ्यात्व अवस्थामें पुण्य भी करे तो अच्छा नहीं है । जो सम्यक्त्व रहित मिथ्यादृष्टि जीव पुण्य सहित है, तो भी पापी ही कहे हैं । तथा जो सम्यक्त्व सहित हैं, वे पहले भवमें उपार्जन किये हुए पापके फलसे दुःख दारिद्र्य भोगते हैं, तो भी पुण्याधिकारी ही कहे हैं । इसलिये यदि सम्यक्त्व सहित हैं, उनका मरना भी अच्छा, मरकर ऊपरको जावेंगे । और जो सम्यक्त्व रहित हैं, उनका पुण्य-कर्म भी प्रशंसा योग्य नहीं है । वे पुण्यके उदयसे क्षुद्र (नीच) देव तथा क्षुद्रमनुष्य होकर संसार-वनमें भटकेंगे । यदि पूर्वके पुण्यको यहाँ भोगते हैं, तो तुच्छ फल भोगके नरक निगोदमें पडेंगे । इसलिए मिथ्यादृष्टियोंका पुण्य भी भला नहीं है । निदानबंध पुण्यसे भवान्तरमें भोगोंको पाकर पीछे नरकमें जावेंगे । सम्यग्दृष्टि प्रथम मिथ्यात्व अवस्थामें किये हुए पापोंके फलसे दुःख भोगते हैं, लेकिन अब सम्यक्त्व मिला है, इसलिये सदा सुखी ही होवेंगे । आयुके अन्तमें नरकसे निकलकर मनुष्य होकर ऊर्ध्वगति ही पावेंगे, और मिथ्यादृष्टि यदि पुण्यके उदयसे देव भी हुए हैं, तो भी देवलोकसे आकर एकेंद्रिय होवेंगे । ऐसा दूसरी जगह भी 'वरं' इत्यादि श्लोकसे कहा है, कि सम्यक्त्व सहित नरकमें रहना भी अच्छा, और सम्यक्त्व रहितका स्वर्गमें निवास भी नहीं शोभा देता ॥५८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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