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________________ १७२ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ५२शाधेन विज्ञातः । कोऽसौ । भिण्णउ अप्पसहाउ आत्मस्वभावः । कथंभूतो विज्ञातः । तस्मादेहाद्भिन्न इति । तथाहि-"सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदियेहि लद्धं तं सुक्खं दुक्खमेव तहा ॥” इति गाथाकथितलक्षणं दृष्टश्रुतानुभूतं यद्देहजनितसुखं तज्जगत्रये कालत्रयेपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च त्यक्त्वा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबलेन पारमाथिकानाकुलखलक्षणसुखपरिणते निजपरमात्मनि स्थिखा च य एव देहाद्भिनं स्वशुद्धात्मानं जानाति स एव देहस्योपरि रागद्वेषौ न करोति । अत्र य एव सर्वप्रकारेण देहममखं त्यक्त्वा देहसुखं नानुभवति तस्यैवेदं व्याख्यानं शोभते नापरस्येति तात्पर्यार्थः ॥ ५१ ॥ अथ वित्ति-णिवित्तिहि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ । बंधहँ हेउ वियाणियउ एयह जेण सहाउ ।। ५२ ॥ वृत्तिनिवृत्त्योः परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् । बन्धस्य हेतुः विज्ञातः एतयोः येन स्वभावः ।। ५२ ॥ वित्तिणिवित्तिहिं इत्यादि । वित्तिणिवित्तिहिं वृत्तिनिवृत्तिविषये व्रताव्रतविषये परममुणि परममुनिः देसु वि करइ ण राउ द्वेषमपि न करोति न च रागम् । येन किं कृतम् । बंधहं हेउ वियाणियउ बन्धस्य हेतुर्विज्ञातः । कोऽसौ । एयहं जेण सहाउ एतयोव्रताव्रतयोः स्वभावो येन विज्ञात इति । अथवा पाठान्तरम् । “ भिण्णउ जेण वियाणियउ एयहं ही है। ऐसा कथन श्रीप्रवचनसारमें कहा है-'सपरम्' इत्यादि । इसका तात्पर्य ऐसा है, कि जो इन्द्रियोंसे सुख प्राप्त होता है, वह सुख दुःखरूप ही है, क्योंकि वह सुख परवस्तु है, निजवस्तु नहीं है, बाधा सहित हैं, निराबाध नहीं है, नाशको लिए हुए है, जिसका नाश हो जाता है, बन्धका कारण है, और विषम है । इसलिये इन्द्रियसुख दुःखरूप ही है, ऐसा इस गाथामें जिसका लक्षण कहा गया है, ऐसे देहजनित सुखको मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदनासे छोडे । वीतरागनिर्विकल्प-समाधिके बलसे आकुलता रहित परमसुखरूप निज परमात्मामें स्थित होकर जो महामुनि देहसे भिन्न अपने शुद्धात्माको जानता है, वही देहके ऊपर रागद्वेष नहीं करता । जो सब तरह देहसे निर्ममत्व होकर देहके सुखको नहीं अनुभवता, उसीके लिए यह व्याख्यान शोभा देता है, और देहबुद्धिवालोंको नहीं शोभता ऐसा अभिप्राय जानना ॥५१॥ आगे प्रवृत्ति और निवृत्तिमें भी महामुनि रागद्वेष नहीं करता, ऐसा कहते हैं-[परममुनिः] महामुनि [वृत्तिनिवृत्त्योः ] प्रवृत्ति और निवृत्तिमें [रागं अपि द्वेष] राग और द्वेषको [न करोति] नहीं करता, [येन] जिसने [एतयोः] इन दोनोंका [स्वभावः] स्वभाव [बंधस्य हेतुः] कर्मबंधका कारण [विज्ञातः] जान लिया है । भावार्थ-व्रत अव्रतमें परममुनि राग द्वेष नहीं करता, जिसने इन दोनोंका स्वभाव बंधका कारण जान लिया है । अथवा पाठांतर होनेसे ऐसा अर्थ होता है, कि जिसने आत्माका स्वभाव भिन्न जान लिया है । अपना स्वभाव प्रवृत्ति निवृत्तिसे रहित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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