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________________ १७१ -दोहा ५१] परमात्मप्रकाशः विसयहं इत्यादि । विसयहं उप्परि विषयाणामुपरि परममुणि परममुनिः देसु वि करइ ण राउ द्वेषमपि करोति न च रागमपि । येन किं कृतम् । विसयहं जेण वियाणिउ विषयेभ्यो येन विज्ञातः। कोऽसौ विज्ञातः । भिण्णउ अप्पसहाउ आत्मस्वभावः । कथंभूतो भिन्न इति । तथा च । द्रव्येन्द्रियाणि भावेन्द्रियाणि द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियग्राह्यान् विषयांश्च दृष्टश्रुतानुभूतान् जगत्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च त्यक्त्वा निजशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दैकरूपसुखामृतरसास्वादेन तृप्तो भूखा यो विषयेभ्यो भिन्न शुद्धात्मानमनुभवति स मुनिः पञ्चेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषौ न करोति । अत्र यः पञ्चेन्द्रियविषयसुखानिवत्यै स्वशुद्धात्मसुखे तृप्तो भवति तस्यैवेदं व्याख्यानं शोभते न च विषयासक्तस्येति भावार्थः॥ ५० ॥ अथ देहहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ। देहहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ॥५१॥ देहस्य उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् । देहाद् येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ॥ ५१ ॥ देहहं इत्यादि । देहहं उप्परि देहस्योपरि परममुणि परममुनिः देसु वि करइ ण राउ द्वेषमपि न करोति न रागमपि । येन किं कृतम् । देहहं जेण वियाणियउ देहात्सकापाँच इन्द्रियोंके स्पर्शादि विषयोंपर [रागमपि द्वेषं] राग और द्वेष [न करोति] नहीं करता, अर्थात् मनोज्ञ विषयोंपर राग नहीं करता और अनिष्ट विषयोंपर द्वेष नहीं करता, क्योंकि [येन] जिनसे [आत्मस्वभावः] अपना स्वभाव [विषयेभ्यः] विषयोंसे [भिन्नः विज्ञातः] जुदा समझ लिया है । इसलिये वीतराग दशा धारण कर ली है ॥ भावार्थ-द्रव्येन्द्रिय भावेन्द्रिय और इन दोनोंसे ग्रहण करने योग्य देखे सुने अनुभव किये जो रूपादि विषय हैं, उनको मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदनासे छोडकर और निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न वीतराग परमानंदरूप अतींद्रियसुखके रसके आस्वादनेसे तृप्त होकर विषयोंसे भिन्न अपने आत्माको जो मुनि अनुभवता है, वो ही विषयोंमें राग द्वेष नहीं करता । यहाँपर तात्पर्य यह है, कि जो पंचेन्द्रियोंके विषयसुखसे निवृत्त होकर निज शुद्ध आत्मसुखमें तृप्त होता है, उसीको यह व्याख्यान शोभा देता है, और विषयाभिलाषीको नहीं शोभता ।।५०।। __ आगे साधु देहके ऊपर भी रागद्वेष नहीं करता-[परममुनिः] महामुनि [देहस्य उपरि] मनुष्यादि शरीरके ऊपर भी [रागमपि द्वेषं] राग और द्वेषको [न करोति] नहीं करता अर्थात् शुभ शरीरसे राग नहीं करता, अशुभ शरीरसे द्वेष नहीं करता, [येन] जिसने [आत्मस्वभावः] निजस्वभाव [देहात्] देहसे [भिन्नः विज्ञातः] भिन्न जान लिया है । देह तो जड है, आत्मा चैतन्य है, जड चैतन्यका क्या संबंध ? ।। भावार्थ-इन इंद्रियोंसे जो सुख उत्पन्न हुआ है, वह दुःखरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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