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________________ १७० योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ४९गंथहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ। गंथहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ॥ ४९ ।। ग्रन्थस्य उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् । ग्रन्थाद् येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ।। ४९ ॥ गंथहं इत्यादि । गंथहं उप्परि ग्रन्थस्य बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहस्योपरि अथवा ग्रन्थरचनारूपशास्त्रस्योपरि परममुणि परमतपस्वी देसु वि करइ ण द्वेषमपि न करोति न राउ रागमपि । येन तपोधनेन किं कृतम् । गंथहं जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्पसहाउ ग्रन्थात्सकाशाधेन विज्ञातो भिन्न आत्मस्वभाव इति । तद्यथा । मिथ्यावं, स्यादिवेदकांक्षारूपवेदत्रयं, हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सारूपं नोकषायषट्कं, क्रोधमानमायालोभरूपं कषायचतुष्टयं चेति चतुर्दशाभ्यन्तरपरिग्रहाः, क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यभाण्डरूपा बाह्यपरिग्रहाः इत्थंभूतान् बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहान् जगत्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च त्यक्त्वा शुद्धात्मोपलम्भलक्षणे वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च यो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाद्भिन्नमात्मानं जानाति स परिग्रहस्योपरि रागद्वेषौ न करोति । अत्रेदं व्याख्यानं एवं गुणविशिष्टनिर्ग्रन्थस्यैव शोभते न च सपरिग्रहस्येति तात्पर्यार्थः॥४९॥ अथ विसयह उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ। विसयहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ।। ५० ॥ विषयाणां उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् । विषयेभ्यः येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ॥ ५० ॥ जानता है, वह परिग्रहमें तथा विषय देहसंबंधी व्रत अव्रतमें राग द्वेष नहीं करता, ऐसा चार सूत्रोंसे प्रगट करते हैं-[ग्रंथस्य उपरि] अंतरङ्ग बाह्य परिग्रहके ऊपर अथवा शास्त्रके ऊपर जो [परममुनिः] परम तपस्वी [राग द्वेषमपि न करोति] राग और द्वेष नहीं करता है [येन] जिस मुनिने [आत्मस्वभावः] आत्माका स्वभाव [ग्रंथात्] ग्रंथसे [भिन्नः विज्ञातः] जुदा जान लिया है । भावार्थ-मिथ्यात्व, वेद, राग, द्वेष, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ-ये चौदह अंतरङ्ग परिग्रह और क्षेत्र, वास्तु (घर), हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य, भांडरूप दस बाह्य परिग्रह-इस प्रकार चौबीस तरहके बाह्य अभ्यंतर परिग्रहोंको तीन जगतमें, तीनों कालोंमें, मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदनासे छोडकर और शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप वीतराग निर्विकल्प समाधिमें ठहरकर परवस्तुसे अपनेको भिन्न जानता है, वो ही परिग्रहके ऊपर रागद्वेष नहीं करता है । यहाँपर ऐसा व्याख्यान निग्रंथ मुनिको ही शोभा देता है, परिग्रहधारीको नहीं शोभा देता है, ऐसा तात्पर्य जानना ॥४९॥ आगे विषयोंके ऊपर वीतरागता दिखलाते हैं-[परममुनिः] महामुनि [विषयाणां उपरि] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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