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परमात्मप्रकाशः
-दोहा ४८]
१६९ विहाय बहिर्भावे रागं न गच्छति येन कारणेन समभावेन विना शुद्धात्मलाभो न भवतीति ॥४७॥ अथ ज्ञानी कमप्यन्यं न भणति न प्रेरयति न स्तौति न निन्दतीति प्रतिपादयति
भणइ भणावइ णवि थुणइ जिंदइ णाणि ण कोइ । सिद्धिहि कारणु भाउ समु जाणंतउ पर सोइ ॥ ४८ ॥ भणति भाणयति नैव स्तौति निन्दति ज्ञानी न कमपि ।।
सिद्धेः कारणं भावं समं जानन् परं तमेव ॥ ४८ ॥ भणइ इत्यादि । भणइ भणति नैव भणावइ नैवान्यं भाणयति न भणन्तं प्रेरयति णवि थुणइ नैव स्तौति णिदइ णाणि ण कोइ निन्दति ज्ञानी न कमपि । किं कुर्वन् सन् । सिद्धिहि कारणु भाउ समु जाणंतउ पर सोइ जानन् । कम् । परं भावं परिणामम् । कथंभूतम् । समु समं रागद्वेषरहितम् । पुनरपि कथंभूतं कारणम् । कस्याः । सिद्धेः परं नियमेन सोइ तमेव सिद्धिकारणं परिणाममिति । इदमत्र तात्पर्यम् । परमोपेक्षासंयमभावनारूपं विशुद्धज्ञानदर्शननिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभूतिलक्षणं साक्षात्सिद्धिकारणं कारणसमयसारं जानन् त्रिगुप्तावस्थायां अनुभवन् सन् भेदज्ञानी पुरुषः परं प्राणिनं न भणति न प्रेरयति न स्तौति न च निन्दतीति ।। ४८॥
अथ बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहेच्छायाः पञ्चेन्द्रियविषयभोगाकांक्षादेहमूर्छाव्रतादिसंकल्पविकल्परहितेन निजशुद्धात्मध्यानेन योऽसौ निजशुद्धात्मानं जानाति स परिग्रहविषयदेहव्रताव्रतेषु रागद्वेषो न करोतीति चतुःकलं प्रकटयति
आगे कहते हैं, कि ज्ञानीजन समभावका स्वरूप जानता हुआ न किसीसे पढता है, न किसीको पढाता है, न किसीको प्रेरणा करता है, न किसीकी स्तुति करता है, न किसीकी निंदा करता है-[ज्ञानी] निर्विकल्प ध्यानी पुरुष [कमपि न] न किसीका [भणति] शिष्य होकर पढता है, न गुरु होकर किसीको [भाणयति] पढाता है, [नैव स्तौति निंदति] न किसीकी स्तुति करता है, न किसीकी निंदा करता है, [सिद्धेः कारणं] मोक्षका कारण [समं भावं] एक समभावको [परं] निश्चयसे [जानन्] जानता हुआ [तमेव केवल आत्मस्वरूपमें अचल हो रहा है, अन्य कुछ भी शुभ अशुभ कार्य नहीं करता ॥ भावार्थ-परमोपेक्षा संयम अर्थात् तीन गुप्तिमें स्थिर परम समाधि उसमें आरूढ जो परमसंयम उसकी भावनारूप निर्मल यथार्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र वही जिसका लक्षण है, ऐसा मोक्षका कारण जो समयसार उसे जानता हुआ, अनुभवता हुआ, अनुभवी पुरुष न किसी प्राणीको सिखाता है, न किसीसे सीखता है, न स्तुति करता है, न निंदा करता है । जिसके शत्रु मित्र सुख दुःख सब एक समान हैं ॥४८॥
आगे बाह्य अंतरंग परिग्रहकी इच्छासे पाँच इंद्रियोंके विषय-भोगोंका वांछक हुआ देहमें ममता नहीं करता, तथा मिथ्यात्व अव्रत आदि समस्त संकल्प विकल्पोंसे रहित जो निज शुद्धात्मा उसे
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