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________________ -दोहा ५२ ] परमात्मप्रकाशः १७३ अप्पसहाउ" भिन्नो येन विज्ञातः। कोऽसौ । आत्मस्वभावः । काभ्याम् । एताभ्यां व्रताव्रतविकल्पाभ्यां सकाशादिति । तथाहि । येन व्रताव्रतविकल्पौ पुण्यपापबन्धकारणभूतौ विज्ञातौ स शुद्धात्मनि स्थितः सन् व्रतविषये रागं न करोति तथा चाव्रतविषये द्वेषं न करोतीति । अत्राह . प्रभाकरभट्टः। हे भगवन् यदि व्रतस्योपरि रागतात्पर्यं नास्ति तर्हि व्रतं निषिद्धमिति । भगवानाह । व्रतं कोऽर्थः । सर्वनिवृत्तिपरिणामः। तथा चोक्तम्-'हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ' अथवा । " रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यानिवृत्तिस्तन्निषेधनम् । तौ च बाह्यार्थसंबन्धौ तस्मात्तांस्तु परित्यजेत् ॥" प्रसिद्धं पुनरहिंसादिव्रतं एकदेशेन व्यवहारेणेति । कथमेकदेशवतमिति चेत् । तथाहि । जीवघाते निवृत्तिर्जीवदयाविषये प्रवृत्तिः, असत्यवचनविषये निवृत्तिः सत्यवचनविषये प्रवृत्तिः, अदत्तादानविषये निवृत्तिः दत्तादानविषये प्रवृत्तिरित्यादिरूपेणैकदेशं व्रतम्। रागद्वेषरूपसंकल्पविकल्पकल्लोलमालारहिते त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधौ पुनः शुभाशुभत्यागात्परिपूर्ण जहाँ व्रत अव्रतका विकल्प नहीं है । ये व्रत अव्रत पुण्य पापरूप बंधके कारण हैं । ऐसा जिसने जान लिया, वह आत्मामें तल्लीन हुआ व्रत अव्रतमें रागद्वेष नहीं करता । ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने पूछा-हे भगवन्, यदि व्रतपर राग नहीं करे, तो व्रत क्यों धारण करे ? ऐसे कथनमें व्रतका निषेध होता है । तब योगीन्द्राचार्य कहते हैं, कि व्रतका अर्थ यह है, कि सब शुभ अशुभ भावोंसे निवृत्ति परिणाम होना । ऐसा ही अन्य ग्रंथोंमें भी 'रागद्वेषौ' इत्यादिसे कहा है । अर्थ यह है कि राग और द्वेष दोनों प्रवृत्तियाँ हैं, तथा इनका निषेध वह निवृत्ति है । ये दोनों अपने नहीं हैं । अन्य पदार्थके संबंधसे हैं । इसलिये इन दोनोंको छोडे । अथवा 'हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रत' ऐसा कहा गया है । इसका अर्थ यह है, कि प्राणियोंको पीडा देना, झूठ वचन बोलना, परधन हरना, कुशीलका सेवन और परिग्रह इनसे जो विरक्त होना, वही व्रत है । ये अहिंसादि व्रत प्रसिद्ध हैं, वे व्यवहारनयकर एकोदेशरूप व्रत हैं । यही दिखलाते हैं-जीवघातमें निवृत्ति, जीव दयामें प्रवृत्ति, असत्य वचनमें निवृत्ति, सत्य वचनमें प्रवृत्ति, अदत्तादान (चोरी) से निवृत्ति, अचौर्यमें प्रवृत्ति इत्यादि स्वरूपसे एकोदेशव्रत कहा जाता है, और रागद्वेषरूप संकल्प विकल्पोंकी कल्लोलोंसे रहित तीन गुप्तिसे गुप्त समाधिमें शुभाशुभके त्यागसे परिपूर्ण व्रत होता है । अर्थात् अशुभकी निवृत्ति और शुभकी प्रवृत्तिरूप एकोदेशव्रत और शुभ अशुभ दोनोंका ही त्याग होना वह पूर्ण व्रत है । इसलिये प्रथम अवस्थामें व्रतका निषेध नहीं है एकोदेशव्रत है, और पूर्ण अवस्थामें सर्वदेश व्रत है । यहाँपर कोई यदि प्रश्न करे, कि व्रतसे क्या प्रयोजन ? आत्मभावनासे ही मोक्ष होता है । भरतजी महाराजने क्या व्रत धारण किया था ? वे तो दो घडीमें ही केवलज्ञान पाकर मोक्ष गये । इसका समाधान ऐसा है, कि भरतेश्वरने पहले जिनदीक्षा धारण की, शिरके केशलुञ्चन किये, हिंसादि पापोंकी निवृत्तिरूप पाँच महाव्रत आदरे । फिर एक अंतर्मुहूर्तमें समस्त विकल्प रहित मन, वचन, काय रोकनेरूप निज शुद्धात्मध्यान उसमें ठहरकर निर्विकल्प हुए । वे शुद्धात्माका ध्यान, देखे सुने और भोगे हुए भोगोंकी वांछारूप निदान बन्धादि विकल्पोंसे रहित ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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