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________________ परमात्मप्रकाशः -दोहा ३८ ] १५९ कारणं हवेइ भवतीति । अयमत्र तात्पर्यार्थः । कर्मोदयवशात् सुखदुःखे जातेऽपि योऽसौ रागादिरहितमनसि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मसंवित्तिं न त्यजति स पुरुष एवाभेदनयेन द्रव्यभावरूपपुण्यपापसंवरस्य हेतुः कारणं भवतीति ॥ ३७ ॥ ____ अथ यावन्तं कालं रागादिरहितपरिणामेन स्वशुद्धात्मस्वरूपे तन्मयो भूखा तिष्ठति तावन्तं कालं संवरनिर्जरां करोतीति प्रतिपादयति अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलीणु। संवर-णिज्जर जाणि तुहुँ सयल-वियप्प-विहीणु ॥ ३८ ॥ तिष्ठति यावन्तं कालं मुनिः आत्मस्वरूपे निलीनः । संवरनिर्जरां जानीहि त्वं सकलविकल्पविहीनम् ॥ ३८ ॥ अत्थ(च्छ)इ इत्यादि । अत्थ(च्छ)इ तिष्ठति । किं कृता तिष्ठति । जित्तिउ कालु यावन्तं कालं प्राप्य । क तिष्ठति । अप्पसरुवि निजशुद्धात्मस्वरूपे । कथंभूतः सन् । णिलीणु निश्चयेन लीनो द्रवीभूतो वीतरागनित्यानन्दैकपरमसमरसीभावेन परिणतः, हे प्रभाकरभट्ट इत्थं भूतपरिणामपरिणतं तपोधनमेवाभेदेन संवरणिज्जर जाणि तुहं संवरनिर्जरास्वरूपं जानीहि खम् । पुनरपि कथंभूतम् । सयलवियप्पविहीणु सकलविकल्पहीनं ख्यातिपूजालाभप्रभृतिविकल्पजालावलीरहितमिति । अत्र विशेषव्याख्यानं यदेव पूर्वसूत्रद्वयभणितं तदेव ज्ञातव्यम् । कस्मात् । तस्यैव निर्जरासंवरव्याख्यानस्योपसंहारोऽयमित्यभिप्रायः ॥ ३८ ॥ एवं मोक्षमोक्षमार्गमोक्षफलादिप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारोक्तसूत्राष्टकेनाभेदरत्नत्रयव्याख्यानमुख्यत्वेन स्थलं द्वेष मोह रहित स्वाभाविक शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप परिणमन करता है, विभावरूप नहीं परिणमता, [तेन] इसी कारण [जीव] हे जीव, वह मुनि [पुण्यस्य पापस्य संवरहेतुः] सहजमें ही पुण्य और पाप इन दोनोंके संवरका कारण [भवति] होता है । भावार्थ-कर्मके उदयसे सुख दुःख उत्पन्न होनेपर भी जो मुनीश्वर रागादि रहित मनमें शुद्ध ज्ञानदर्शनस्वरूप अपने निज शुद्ध स्वरूपको नहीं छोडता है, वही पुरुष अभेदनयकर द्रव्य भावरूप पुण्य पापके संवरका कारण है ॥३७॥ आगे जिस समय जितने काल तक रागादि रहित परिणामोंकर निज शुद्धात्मस्वरूपमें तन्मय हुआ ठहरता है, तब तक संवर और निर्जराको करता है, ऐसा कहते हैं-[मुनिः] मुनिराज [यावंतं कालं] जब तक [आत्मस्वरूपे निलीनः] आत्मस्वरूपमें लीन हुआ [तिष्ठति] रहता है, अर्थात् वीतराग नित्यानंद. परम समरसीभावकर परिणमता हुआ अपने स्वभावमें तल्लीन होता है, उस समय हे प्रभाकरभट्ट, [त्वं] तू [सकलविकल्पविहीनं] समस्त विकल्प समूहोंसे रहित अर्थात् ख्याति (अपनी बडाई) पूजा (अपनी प्रतिष्ठा) लाभको आदि देकर विकल्पोंसे रहित उस मुनिको [संवरनिर्जरा] संवर निर्जरा स्वरूप [जानीहि] जान । यहाँपर भावार्थरूप विशेष व्याख्यान जो कि पहले दो सूत्रोंमें कहा था, वही जानो ! इस प्रकार संवर निर्जराका व्याख्यान संक्षेपपसे कहा गया है ॥३८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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