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________________ १५८ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ३७तथा चोक्तं तत्रेदम्-" चरितारो न सन्त्यद्य यथाख्यातस्य संप्रति । तत्किमन्ये यथाशक्तिमाचरन्तु तपस्विनः॥"। पुनश्चोक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः मोक्षप्राभृते-"अन्ज वि तियरणसुद्धा अप्पा झाऊण लहहिं इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुदा णिव्वुदि जंति ॥"। अयमत्र भावार्थः । यथादित्रिकसंहननलक्षणवीतरागयथाख्यातचारित्राभावेऽपीदानीं शेषसंहननेनापि शेषचारित्रमाचरन्ति तपस्विनः तथादिकत्रिकसंहननलक्षणशुक्लध्यानाभावेऽपि शेषसंहननेनापि संसारस्थितिच्छेदकारणं परंपरया मुक्तिकारणं च धर्मध्यानमाचरन्तीति ।। ३६ ॥ अथ सुखदुःखं सहमानः सन् येन कारणेन समभावं करोति मुनिस्तेन कारणेन पुण्यपापद्वयसंवरहेतुर्भवतीति दर्शयति बिणि वि जेण सहंतु मुणि मणि सम-भाउ करेइ । पुण्णहँ पावह तेण जिय संवर-हेउ हवेइ ॥ ३७॥ द्वे अपि येन सहमानः मुनिः मनसि समभावं करोति । पुण्यस्य पापस्य तेन जीव संवरहेतुः भवति ॥ ३७॥ बिण्णि वि इत्यादि । बिण्णि वि द्वे अपि सुखदुःखे जेण येन कारणेन सहंतु सहमानः सन् । कोऽसौ कर्ता । मुणि मुनिः स्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानी। मणि अविक्षिप्तमनसि । समभाउ समभावं सहजशुद्धज्ञानानन्दैकरूपं रागद्वेषमोहरहितं परिणामं कर्मतापन्नं करेइ करोति परिणमति पुण्णहं पावहं पुण्यस्य पापस्य संबन्धी तेण तेन कारणेन जिय हे जीव संवरहेउ संवरहेतुः वि' । उसका तात्पर्य यह है, कि अब भी इस पंचमकालमें मन वचन कायकी शुद्धतासे आत्माका ध्यान करके यह जीव इन्द्र पदको पाता है, अथवा लौकांतिकदेव होता है, और वहाँसे च्युत होकर मनुष्यभव धारण करके मोक्षको पाता है । अर्थात् इस समय पहलेके तीन संहनन तो नहीं हैं, परंतु अर्धनाराच, कीलक, सृपाटिका, ये आगेके तीन हैं, इन तीनोंसे सामायिक छेदोपस्थापनाका आचरण करो, तथा धर्मध्यानको आचरो । धर्मध्यानका अभाव छहों संहननोंमें नहीं है, शुक्लध्यान पहलेके तीन संहननोंमें ही होता है, उनमें भी पहला पाया (भेद) उपशमश्रेणीसंबंधी तीनों संहननोंमें है, और दूसरा तीसरा चौथा पाया प्रथम संहननवाले के ही होता है, ऐसा नियम हैं । इसलिये अब शुक्लध्यानके अभावमें भी हीन संहननवाले इस धर्मध्यानको आचरो । यह धर्मध्यान परम्पराय मुक्तिका मार्ग है, संसारकी स्थितिका छेदनेवाला है । जो कोई नास्तिक इस समय धर्मध्यानका अभाव मानते हैं, वे झूठ बोलनेवाले हैं, इस समय धर्मध्यान है, शुक्लध्यान नहीं है ॥३६॥ ___ आगे जो मुनिराज सुख दु:खको सहते हुए समभाव रखते हैं, अर्थात् सुखमें तो हर्ष नहीं करते, और दुःखमें खेद नहीं करते, जिनके सुख दुःख दोनों ही समान हैं, वे ही साधु पुण्यकर्म पापकर्मके संवर (रोकने) के कारण हैं, आनेवाले कर्मोंको रोकते हैं, ऐसा दिखलाते हैं-[येन] जिस कारण [द्वे अपि सहमानः] सुख दुःख दोनोंको ही सहता हुआ [मुनिः] स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञानी [मनसि] निश्चिंत मनमें [समभावं] समभावोंको [करोति] धारण करता है, अर्थात् राग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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