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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ३९समाप्तम् । अत ऊर्ध्वं चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं परमोपशमभावमुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति । तथाहि कम्मु पुरकिउ सो खवइ अहिणव पेसु ण देइ । संगु मुएविणु जो सयलु उवसम-भाउ करेइ ॥ ३९॥ कर्म पुराकृतं स क्षपयति अभिनवं प्रवेशं न ददाति । संग मुक्त्वा यः सकलं उपशमभावं करोति ॥ ३९ ॥ कम्मु इत्यादि । कम्मु पुरकिउ कर्म पुराकृतं सो खवइ स एव वीतरागस्वसंवेदनतत्त्वज्ञानी क्षपयति । पुनरपि किं करोति । अहिणव पेसु ण देइ अभिनवं कर्म प्रवेशं न ददाति । स कः । संगु मुएविणु जो सयल संगं बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहं मुक्खा यः कर्ता समस्तम् । पश्चात्किं करोति । उवसमभाउ करेइ जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखादिसमताभावलक्षणं समभावं करोति । तद्यथा । स एव पुराकृतं कर्म क्षपयति नवतरं संवृणोति य एव बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहं मुक्ला सर्वशास्त्रं पठिला च शास्त्रफलभूतं वीतरागपरमानन्दैकसुखरसास्वादरूपं समभावं करोतीति भावार्थः। तथा चोक्तम्-“साम्यमेवादराद्भाव्यं किमन्यैर्ग्रन्थविस्तरैः । प्रक्रियामात्रमेवेदं वाङ्मयं विश्वमस्य हि ।।" ॥ ३९ ॥ अथ यः समभावं करोति तस्यैव निश्चयेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि नान्यस्येति दर्शयति दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम-भाउ करेइ । इयरहँ एक वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ ॥ ४० ।। इस तरह मोक्ष, मोक्षमार्ग और मोक्षफलका निरूपण करनेवाले दूसरे महाधिकारमें आठ दोहासूत्रोंसे अभेदरत्नत्रयके व्याख्यानकी मुख्यतासे अंतरस्थल पूरा हुआ । आगे चौदह दोहोंमें परम उपशमभावकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं-[सः] वही वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानी [पुराकृतं कर्म] पूर्व उपार्जित कर्मोंको [क्षपयति] क्षय करता है, और [अभिनवं] नये कर्मोंको [प्रवेशं] प्रवेश [न ददाति] नहीं होने देता, [यः] जो कि [सकलं] सब [संगं] बाह्य अभ्यंतर परिग्रहको [मुक्त्वा ] छोडकर [उपशमभावं] परम शांतभावको [करोति] करता है, अर्थात् जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, शत्रु, मित्र, तृण, कंचन इत्यादि वस्तुओंमें एकसा परिणाम रखता है । भावार्थ-जो मुनिराज सकल परिग्रहको छोडकर सब शास्त्रोंका रहस्य जानकर वीतराग परमानंद सुखरसका आस्वादी हुआ समभाव करता है, वही साधु पूर्वके कर्मोंका क्षय करता है, और नवीन कर्मोंको रोकता है । ऐसा ही कथन पद्मनंदिपच्चीसीमें भी है-“साम्यमेव" इत्यादि । इसका तात्पर्य यह है, कि आदरसे समभावको ही धारण करना चाहिये, अन्य ग्रन्थके विस्तारोंसे क्या, समस्त पंथ तथा सकल द्वादशांग इस समभावरूप सूत्रकी ही टीका है ॥३९॥ आगे जो जीव समभावको करता है, उसीके निश्चयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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