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________________ १५० योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ३१भावार्थः ॥ ३० ॥ एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गादिप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गमुख्यखेन सूत्रत्रयं षड्द्रव्यश्रद्धानलक्षणव्यवहारसम्यक्सव्याख्यानमुख्यखेन सूत्राणि चतुर्दश, सम्यग्ज्ञानचारित्रमुख्यतेन सूत्रद्वयमिति समुदायेनैकोनविंशतिसूत्रस्थलं समाप्तम् ।। अथानन्तरमभेदरत्नत्रयव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्राष्टकं कथ्यते, तत्रादौ तावत् रत्नत्रयभक्तभव्यजीवस्य लक्षणं प्रतिपादयति जो भत्तउ रयण-त्तयह तसु मुणि लक्खणु एउ। अप्पा मिल्लिवि गुण-णिलउ तासु वि अण्णु ण झेउ ।। ३१ ।। यः भक्तः रत्नत्रयस्य तस्य मन्यस्व लक्षण एतत् । आत्मानं मुक्त्वा गुणनिलयं तस्यापि अन्यत् न ध्येयम् ॥ ३१ ॥ जो इत्यादि । जो यः भत्तउ भक्तः । कस्य । रयणत्तयहं रत्नत्रयसंयुक्तस्य तसु तस्य जीवस्य मुणि मन्यस्व जानीहि हे प्रभाकरभट्ट । किं जानीहि । लक्खणु लक्षणं एउ इदमग्रे वक्ष्यमाणम् । इदं किम् । अप्पा मिल्लिवि आत्मानं मुक्त्वा । किंविशिष्टम् । गुणणिलउ गुणनिलयं गुणगृहं तासु वि तस्यैव जीवस्य अण्णु ण झेउ निश्चयेनान्यदहिव्यं ध्येयं न भवतीति । तथाहि । व्यवहारेण वीतरागसर्वज्ञमणीतशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थविभ्रम इन तीनोंसे रहित है । तथा शंकादि दोषोंसे रहित जो सम्यग्दर्शन है, उससे आप और परकी श्रद्धा करे, अच्छी तरह जानके प्रतीति करे, और माया मिथ्या निदान इन तीन शल्योंको आदि लेकर समस्त चिंता-समूहके त्यागसे निज शुद्धात्मस्वरूपमें तिष्ठे हैं, वह परम आनंद अतीन्द्रिय सुखरसके आस्वादसे तृप्त हुआ पुरुष ही अभेदनयसे निश्चयचारित्र है ॥३०॥ __इस प्रकार मोक्ष, मोक्षका फल, मोक्षका मार्ग इनको कहनेवाले दूसरे महाधिकारमें निश्चय व्यवहाररूप निर्वाणके पंथकी मुख्यतासे तीन दोहोंमें व्याख्यान किया, और चौदह दोहोंमें छह द्रव्यकी श्रद्धारूप व्यवहारसम्यक्त्वका व्याख्यान किया, तथा दो दोहोंमें सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रका मुख्यतासे वर्णन किया । इस प्रकार उन्नीस दोहोंका स्थल पूरा हुआ । आगे अभेदरत्नत्रयके व्याख्यानकी मुख्यतासे आठ दोहा-सूत्र कहते हैं, उनमेंसे पहले रत्नत्रयके भक्त भव्यजीवके लक्षण कहते हैं-यः] जो जीव [रत्नत्रयस्य भक्तः] रत्नत्रयका भक्त है [तस्य] उसका [इदं लक्षणं] यह लक्षण [मन्यस्व] जानना । हे प्रभाकरभट्ट, रत्नत्रय धारकके ये लक्षण हैं । [गुणनिलयं] गुणोंके समूह [आत्मानं मुक्त्वा ] आत्माको छोडकर [तस्यापि अन्यत्] आत्मासे अन्य बाह्य द्रव्यको [न ध्येयं] न ध्यावे, निश्चयनयसे एक आत्मा ही ध्यावने योग्य है, अन्य नहीं ।। भावार्थ-व्यवहारनयकर वीतराग सर्वज्ञके कहे हुए शुद्धात्मतत्त्व आदि छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंच अस्तिकायका श्रद्धान जानने योग्य है, और हिंसादि पाप त्याग करने योग्य हैं, व्रत शीलादि पालने योग्य हैं । ये लक्षण व्यवहाररत्नत्रयके हैं, सो व्यवहारका नाम भेद हैं, वह भेदरत्नत्रय आराधने योग्य है, उसके प्रभावसे निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति है । वीतराग सदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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