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________________ १५१ -दोहा ३२] परमात्मप्रकाशः विषये सम्यक् श्रद्धानज्ञानाहिंसादिव्रतशीलपरिपालनरूपस्य भेदरत्नत्रयस्य निश्चयेन वीतरागसदानन्दैकरूपसुखसुधारसास्वादपरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपस्याभेदरत्नत्रयस्य च योऽसौ भक्तस्तस्येदं लक्षणं जानीहि । इदं किम् । यद्यपि व्यवहारेण सविकल्पावस्थायां चित्तस्थितिकरणार्थं देवेन्द्रचक्रवादिविभूतिविशेषकारणं परंपरया शुद्धात्मप्राप्तिहेतुभूतं पञ्चपरमेष्ठिरूपस्तववस्तुस्तवगुणस्तवादिकं वचनेन स्तुत्यं भवति मनसा च तदक्षररूपादिकं प्राथमिकानां ध्येयं भवति, तथापि पूर्वोक्तनिश्चयरत्नत्रयपरिणतिकाले केवलज्ञानाद्यनन्तगुणपरिणतः स्वशुद्धात्मैव ध्येय इति । अत्रेदं तात्पर्यम् । योऽसावनन्तज्ञानादिगुणः शुद्धात्मा ध्येयो भणितः स एव निश्चयेनोपादेय इति ॥ ३१॥ । ___ अथ ये ज्ञानिनो निर्मलरत्नत्रयमेवात्मानं मन्यन्ते शिवशब्दवाच्यं ते मोक्षपदाराधकाः सन्तो निजात्मानं ध्यायन्तीति निरूपयति जे रयण-त्तउ णिम्मलउ णाणिय अप्पु भणंति । ते आराहय सिव-पयहँ णिय-अप्पा झायंति ॥ ३२ ।। ये रत्नत्रयं निर्मलं ज्ञानिनः आत्मानं भणन्ति । ते आराधकाः शिवपदस्य निजात्मानं ध्यायन्ति ॥ ३२ ॥ जे इत्यादि। ये केचन रयणत्तउ रनत्रयम् । कथंभूतम् । णिम्मलउ निर्मलं रागादिदोषरहितम् । कथंभूता ये। णाणिय ज्ञानिनः । किं कुर्वन्ति । अप्पु भणंति पूर्वोक्तरत्नत्रयस्वरूपमेवात्मानं, आत्मस्वरूपं कर्मतापन्न भणंति मन्यन्ते ते आराहय ते पूर्वोक्ताः पुरुषाः आराधका आनंदरूप जो निज शुद्धात्मा आत्मिक सुखरूप सुधारसके आस्वाद कर परिणत हुआ उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप अभेदरत्नत्रय है, उसका जो भक्त (आराधक) उसके ये लक्षण हैं, यह जानो । वे कौनसे लक्षण हैं-यद्यपि व्यवहारनयकर सविकल्प अवस्थामें चित्तके स्थिर करनेके लिये पंचपरमेष्ठीका स्तवन करता है, जो पंचपरमेष्ठीका स्तवन देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि विभूतिका कारण है, और परम्पराय शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्तिका कारण है, सो प्रथम अवस्थामें भव्यजीवोंको पंचपरमेष्ठी ध्यावने योग्य हैं, उनके आत्माका स्तवन, गुणोंकी स्तुति, वचनसे उनकी अनेक तरहकी स्तुति करनी, और मनसे उनके नामके अक्षर तथा उनका रूपादिक ध्यावने योग्य हैं, तो भी पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्तिके समय केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप परिणत जो निज शुद्धात्मा वही आराधने योग्य है, अन्य नहीं । तात्पर्य यह है कि ध्यान करने योग्य या तो निज आत्मा है, या पंचपरमेष्ठी हैं, अन्य नहीं । प्रथम अवस्थामें तो पंचपरमेष्ठीका ध्यान करना योग्य है, और निर्विकल्पदशामें निजस्वरूप ही ध्यावने योग्य है, निजरूप ही उपादेय हैं ।।३१।। ___ आगे जो ज्ञानी निर्मल रत्नत्रयको ही आत्मस्वरूप मानते हैं, और अपनेको ही शिव जानते हैं, वे ही मोक्षपदके धारक हुए निज आत्माको ध्यावते हैं, ऐसा निरूपण करते हैं-[ये ज्ञानिनः] जो ज्ञानी [निर्मलं रत्नत्रयं] निर्मल रागादि दोष रहित रत्नत्रयको [आत्मानं] आत्मा [भणंति] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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