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________________ -दोहा ३० ] परमात्मप्रकाशः १४९ भङ्गयात्मकं वा तत् तथा जानाति य आत्मसंबन्धी स्वपरपरिच्छेदको भावः परिणामस्तत् सम्यग्ज्ञानं भवति । अयमत्र भावार्थः। व्यवहारेण सविकल्पावस्थायां तत्त्वविचारकाले स्वपरपरिच्छेदकं ज्ञानं भण्यते । निश्चयनयेन पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले बहिरुपयोगो यद्यप्यनीहितवृत्त्या निरस्तस्तथापीहापूर्वकविकल्पाभावाद्गौणखमितिकृया स्वसंवेदनज्ञानमेव ज्ञानमुच्यते ॥ २९ ॥ . ___ अथ स्वपरद्रव्यं ज्ञाखा रागादिरूपपरद्रव्यविषयसंकल्पविकल्पत्यागेन स्वस्वरूपे अवस्थानं ज्ञानिनां चारित्रमिति प्रतिपादयति जाणवि मण्णवि अप्पु परु जो पर-भाउ चएइ । सो णिउ सुद्धउ भावडउ णाणिहि चरणु हवेइ ।। ३० ।। ज्ञात्वा मत्वा आत्मानं परं यः परभावं त्यजति । स निजः शुद्धः भावः ज्ञानिनां चरणं भवति ॥ ३० ॥ जाणवि इत्यादि । जाणवि सम्यग्ज्ञानेन ज्ञाखा न केवलं ज्ञाखा मण्णवि तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणपरिणामेन मला श्रद्धाय। कम्। अप्पु परु आत्मानं च परं च जो यः कर्ता परभाउ परभावं चएइ त्यजति सो स पूर्वोक्तःणिउ निजःसुद्धउ भावडउ शुद्धो भावो णाणिहिं चरणु हवेइ ज्ञानिनां पुरुषाणां चरणं भवतीति । तद्यथा। वीतरागसहजानन्दैकस्वभावं स्वद्रव्यं तद्विपरीतं परद्रव्यं च संशयविपर्ययानध्यवसायरहितेन ज्ञानेन पूर्व ज्ञाखा शङ्कादिदोषरहितेन सम्यक्त्वपरिणामेन श्रद्धाय च यः कर्ता मायामिथ्यानिदानशल्यप्रभृतिसमस्तचिन्ताजालत्यागेन निजशुद्धात्मस्वरूपे परमानन्दसुरखरसास्वादतृप्तो भूखा तिष्ठति स पुरुष एवाभेदेन निश्चयचारित्रं भवतीति भावार्थ-जो द्रव्य है, वह सत्ता लक्षण है, उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप है, और सभी द्रव्य गुण पर्यायको धारण करते हैं, गुण पर्यायके बिना कोई नहीं हैं । अथवा सब ही द्रव्य सप्तभंगीस्वरूप हैं, ऐसा द्रव्योंका स्वरूप जो निःसंदेह जाने, आप और परको पहचाने, ऐसा जो आत्माका भाव (परिणाम) वह सम्यग्ज्ञान है । सारांश यह है, कि व्यवहारनयकर विकल्प सहित अवस्थामें तत्त्वके विचारके समय आप और परका जानपना ज्ञान कहा है, और निश्चयनयकर वीतराग निर्विकल्प समाधिसमय पदार्थोंका जानपना मुख्य नहीं लिया, केवल स्वसंवेदनज्ञान ही निश्चयसम्यग्ज्ञान है । व्यवहारसम्यग्ज्ञान तो परम्पराय मोक्षका कारण है, और निश्चयसम्यग्ज्ञान साक्षात् मोक्षका कारण है ।२९। आगे निज और परद्रव्यको जानकर रागादिरूप जो परद्रव्यमें संकल्प विकल्प हैं, उनके त्यागसे जो निजस्वरूपमें निश्चलता होती है, वही ज्ञानी जीवोंके सम्यक्चारित्र है, ऐसा कहते हैं-सम्यग्ज्ञानसे [आत्मानं च परं] आपको और परको [ज्ञात्वा] जानकर और सम्यग्दर्शनसे [मत्वा] आप और परकी प्रतीति करके [यः] जो [परभावं] परभावको [त्यजति] छोडता है [सः] वह [निजः शुद्धः भावः] आत्माका निज शुद्ध भाव [ज्ञानिनां] ज्ञानी पुरुषोंके [चरणं] चारित्र [भवति] होता है । भावार्थ-वीतराग सहजानंद अद्वितीय स्वभाव जो आत्मद्रव्य उससे विपरीत पुद्गलादि परद्रव्योंको सम्यग्ज्ञानसे पहले तो जानें, वह सम्यग्ज्ञान संशय विमोह और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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