________________
१४८
योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा २९यद्यपि सर्वद्रव्याणि व्यवहारेणैकक्षेत्रावगाहेनान्योन्यानुप्रवेशेन तिष्ठन्ति तथापि निश्चयनयेन चेतनादिखकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्तीति । तथा चोक्तम्-" अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता वि य णिचं सगसब्भावं ण विजहंति ॥"। इदमत्र तात्पर्यम् । व्यवहारसम्यक्त्वविषयभूतेषु षड्द्रव्येषु मध्ये वीतरागचिदानन्दैकादिगुणस्वभावं शुभाशुभमनोवचनकायव्यापाररहितं निजशुद्धात्मद्रव्यमेवोपादेयम् ॥ २८ ॥ एवमेकोनविंशतिसूत्रप्रमितस्थले निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गप्रतिपादकवेन पूर्वसूत्रत्रयं गतम् । इदं पुनरन्तरं स्थलं चतुर्दशसूत्रप्रमितं षड्द्रव्यध्येयभूतव्यवहारसम्यक्त्वव्याख्यानमुख्यखेन समाप्तमिति । अथ संशयविपर्ययानध्यवसायरहितं सम्यग्ज्ञानं प्रकटयति
जं जह थक्कर दव्वु जिय तं तह जाणइ जो जि । अप्पहं केरउ भावडउ णाणु मुणिज्जहि सो जि ॥ २९ ॥ यद् यथा स्थितं द्रव्य जीव तत् तथा जानाति य एव ।
आत्मनः संबन्धी भावः ज्ञानं मन्यस्व स एव ॥ २९ ॥ जं इत्यादि । जं यत् जह यथा थक्कउ स्थितं दव्वु द्रव्यं जिय हे जीव तं तत् तह तथा जाणइ जानाति जो जि य एव । य एव कः। अप्पहं केरउ भावडउ आत्मनः संबन्धी भाव: परिणामः णाणु मुणिजहि ज्ञानं मन्यस्व जानीहि सोजि स एव पूर्वोक्त आत्मपरिणाम इति। तथा च। यद् द्रव्यं यथा स्थितं सत्तालक्षणं उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं वा गुणपर्यायलक्षणं वा सप्तकहा । ये सब द्रव्य यद्यपि व्यवहारनयकर एक क्षेत्रावगाही रहते हैं, तो भी निश्चयनयकर अपने अपने स्वभावको नहीं छोडते, दूसरे द्रव्यमें जिनका प्रवेश नहीं है, सभी द्रव्य निज निज स्वरूपमें हैं, पररूप नहीं हैं-कोई किसीका स्वभाव नहीं लेता । ऐसा ही कथन श्रीपंचास्तिकायमें हैं-"अण्णोण्णं" इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है, कि यद्यपि ये छहों द्रव्य परस्परमें प्रवेश करते हुए देखे जाते हैं, तो भी कोई किसीमें प्रवेश नहीं करता, यद्यपि अन्यको अन्य अवकाश देता है, तो भी अपना अपना अवकाश आपमें ही है, परमें नहीं है । यद्यपि ये द्रव्य हमेशासे मिल रहे हैं, तो भी अपने स्वभावको नहीं छोडते । यहाँ तात्पर्य यह है, कि व्यवहारसम्यक्त्वके कारण छह द्रव्योंमें वीतराग चिदानंद अनंत गुणरूप जो शुद्धात्मा है, वह शुभ अशुभ मन वचन कायके व्यापारसे रहित हुआ ध्यावने योग्य है ॥२८॥ इस प्रकार उन्नीस दोहोंके स्थलमें निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहा कहे । ऐसे चौदह दोहोंतक व्यवहारसम्यक्त्वका व्याख्यान किया, जिसमें छह द्रव्योंका श्रद्धान मुख्य है ।
आगे संशय विमोह विभ्रम रहित जो सम्यग्ज्ञान है, उसका स्वरूप प्रगट करते हैं-[जीव] हे जीव; [यत्] ये सब द्रव्य [यथा स्थितं] जिस तरह अनादिकालके तिष्ठे हुए हैं, जैसा इनका स्वरूप है, [तत् तथा] उनको वैसा ही संशयादि रहित [य एव जानाति] जो जानता है, [स एव] वही [आत्मनः संबंधीभावः] आत्माका निजस्वरूप [ज्ञानं] सम्यग्ज्ञान है, ऐसा [मन्यस्व] तू मान ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org