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________________ १४२ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा २५कहियई दव्वई जाई कथितानि जीवादिद्रव्याणि यानि । पुनः कथंभूतानि । एकहिं मिलियइं एकवे मिलितानि । इत्थु जगि अत्र जगति सगुणहिं णिवसहिं निश्चयनयेन स्वकीयगुणेषु निवसन्ति 'सगुणहिं' तृतीयान्तं करणपदं स्वगुणेष्वधिकरणं कथंजातमिति । ननु कथितं पूर्व प्राकृते कारकव्यभिचारो लिङ्गव्यभिचारश्च कचिद्भवतीति । कानि निवसन्ति । ताई पूर्वोतानि जीवादिषड्व्व्याणीति । तद्यथा । यद्यप्युपचरितासद्भूतव्यवहारेणाधाराधेयभावेनैकक्षेत्रावगाहेन तिष्ठन्ति तथापि शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्याथिकनयेन संकरव्यतिकरपरिहारेण स्वकीयस्वकीयसामान्यविशेषशुद्धगुणान्न त्यजन्तीति । अत्राह प्रभाकरभट्टः। हे भगवन् लोकस्तावदसंख्यातप्रदेशः परमागमे भणितः तिष्ठति तत्रासंख्यातप्रदेशलोके प्रत्येकं प्रत्येकमसंख्येयप्रदेशान्यनन्तजीवद्रव्याणि, तत्र चैकैके जीवद्रव्ये कर्मनोकर्मरूपेणानन्तानि पुद्गलपरमाणुद्रव्याणि च तिष्ठन्ति तेभ्योऽप्यनन्तगुणानि शेषपुद्गलद्रव्याणि तिष्ठन्ति तानि सर्वाण्यसंख्येयप्रदेशलोके कथमवकाशं लभन्ते इति पूर्वपक्षः। भगवान् परिहारमाह । अवगाहनशक्तियोगादिति । तथाहि । यथैकस्मिन् गूढनागरसगद्याणके शतसहस्रलक्षसुवर्णसंख्याममितान्यवकाशं लभन्ते, अथवा यथैकस्मिन् प्रदीपप्रकाशे बहवोऽपि प्रदीपप्रकाशा अवकाशं लभन्ते, अथवा यथैकस्मिन् भस्मघटे जलघटः सम्यगवकाशं लभते, अथवा यथैकस्मिन् भूमिगृहे बहवोऽपि पटहजयघण्टादिआधार है, और ये सब आधेय हैं, [एकत्वे मिलितानि] ये द्रव्य एक क्षेत्रमें मिले हुए रहते हैं, एक क्षेत्रावगाही हैं, तो भी [स्वगुणेषु] निश्चयनयकर अपने अपने गुणोंमें ही [निवसंति] निवास करते हैं, परद्रव्यसे मिलते नहीं हैं ॥ भावार्थ-यद्यपि उपचरितअसद्भूतव्यवहारनयकर आधाराधेयभावसे एक क्षेत्रावगाहकर तिष्ठ रहे हैं, तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे परद्रव्यसे मिलनेरूप संकर-दोषसे रहित हैं, और अपने अपने सामान्य गुण तथा विशेष गुणोंको नहीं छोडते हैं । यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया कि हे भगवन्, परमागममें लोकाकाश तो असंख्यातप्रदेशी कहा है, उस असंख्यातप्रदेशी लोकमें अनंत जीव किस तरह समा सकते हैं ? क्योंकि एक एक जीवके असंख्यात असंख्यात प्रदेश हैं, और एक एक जीवमें अनंतानंत पुद्गलपरमाणु कर्म नोकर्मरूपसे लग रहे हैं, और उनके सिवाय अनन्तगुणें अन्य पुद्गल रहते हैं, सो ये द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोकमें कैसे समा गये ? इसका समाधान श्री गुरु करते हैं-आकाशमें अवकाशदान (जगह देनेकी) शक्ति है, उसके सम्बन्धसे समा जाते हैं । जैसे एक गूढ नागरस गुटिकामें शत सहस्र लक्ष सुवर्ण संख्या आ जाती है, अथवा एक दीपकके प्रकाशमें बहुत दीपकोंका प्रकाश जगह पाता है, अथवा जैसे एक राखके घडेमें जलका घडा अच्छी तरह अवकाश पाता है, भस्ममें जल शोषित हो जाता हैं, अथवा जैसे एक ऊँटनीके दूधके घडेमें शहदका घडा समा जाता है, अथवा एक भूमिघरमें ढोल घण्टा आदि बहुत बाजोंका शब्द अच्छी तरह समा जाता है, उसी तरह एक लोकाकाशमें विशिष्ट अवगाहनशक्तिके योगसे अनंत जीव और अनन्तानन्त पुद्गल अवकाश पाते हैं, इसमें विरोध नहीं है, और जीवोंमें परस्पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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