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________________ -दोहा २५ ] परमात्मप्रकाशः १४१ पुग्गलदेस पुद्गलपदेशाः । अत्र पुद्गलद्रव्यप्रदेशविवक्षया प्रदेशशब्देन परमाणवो ग्राह्याः न च क्षेत्रप्रदेशा इति । कस्मात् । पुद्गलस्यानन्तक्षेत्रप्रदेशाभावादिति । अथवा पाठान्तरम् । 'पुग्गलु तिविहु पएसु' । पुद्गलद्रव्ये संख्यातासंख्यातानन्तरूपेण त्रिविधाः प्रदेशाः परमाणवो भवन्तीति । अत्र निश्चयेन द्रव्यकर्मीभावादमूर्ता मिथ्यावरागादिरूपभावकर्मसंकल्पविकल्पाभावात् शुद्धा लोकाकाशप्रमाणेनासंख्येयाः प्रदेशा यस्य शुद्धात्मनः स शुद्धात्मा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिपरिणतिकाले साक्षादुपादेय इति भावार्थः॥ २४ ॥ अथ लोके यद्यपि व्यवहारेणैकक्षेत्रावगाहेन तिष्ठन्ति द्रव्याणि तथापि निश्चयेन संकरव्यतिकरपरिहारेण कृत्वा स्वकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्तीति दर्शयति लोयागासु धरेवि जिय कहियई दव्यइँ जाइ। एक्कहि मिलियइँ इत्थु जगि सगुणहि णिवसहि ताइँ ।। २५ ।। लोकाकाशं धृत्वा जीव कथितानि द्रव्याणि यानि । एकत्वे मिलितानि अत्र जगति स्वगुणेषु निवसन्ति तानि ॥ २५ ॥ लोयागासु इत्यादि । लोयागासु लोकाकाशं कर्मतापानं धरेवि धृत्वा मर्यादीकृत्य जिय हे जीव अथवा लोकाकाशमाधारीकृखा ठियाइं आधेयरूपेण स्थितानि । कानि स्थितानि । अधर्मद्रव्य भी एक है, असंख्यातप्रदेशी है, जीव अनंत हैं, सो एक एक जीव असंख्यात प्रदेशी हैं, आकाशद्रव्य एक ही है, वह अनंतप्रदेशी है, ऐसा जानो । पुद्गल एक प्रदेशसे लेकर अनंतप्रदेश तक है । एक परमाणु तो एक प्रदेशी है, और जैसे जैसे परमाणु मिलते जाते हैं, वैसे वैसे प्रदेश भी बढते जाते हैं, वे संख्यात असंख्यात अनंत प्रदेश तक जानने। अनंत परमाणु इकट्ठे होवें, तब अनंत प्रदेश कहे जाते हैं । अन्य द्रव्योंके तो विस्ताररूप प्रदेश हैं, और पुद्गलके स्कन्धरूप प्रदेश हैं । पुद्गलके कथनमें प्रदेश शब्दसे परमाणु लेना, क्षेत्र नहीं लेना । पुद्गलका प्रचार लोकमें ही है, अलोकाकाशमें नहीं है, इसलिए अनंत क्षेत्र प्रदेशके अभाव होनेसे क्षेत्र प्रदेश न जानने । जैसे जैसे परमाणु मिल जाते हैं वैसे वैसे प्रदेशोंकी बढवारी जाननी । इसी दोहाके कथनमें पाठांतर “पुग्गलु तिविहु पएसु" ऐसा है उसका अर्थ यह है कि पुद्गलके संख्यात, असंख्यात, अनन्त प्रदेश परमाणुओंके मेलसे जानना चाहिए, अर्थात् एक परमाणु एक प्रदेश, बहुत परमाणु बहु प्रदेश, यह जानना । सूत्रमें शुद्धनिश्चयकर द्रव्यकर्मके अभावसे यह जीव अमूर्तिक है, और मिथ्यात्व रागादिरूप भावकर्म संकल्प विकल्पके अभावसे शुद्ध है, लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशवाला है, ऐसा जो निज शुद्धात्मा वही वीतरागनिर्विकल्पसमाधिदशामें साक्षात् उपादेय है, यह जानना ॥२४॥ ___ आगे लोकमें यद्यपि व्यवहारनयकर ये सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाहसे तिष्ठ रहे हैं, तो भी निश्चयनयकर कोई द्रव्य किसीसे नहीं मिलता, और कोई भी अपने अपने स्वरूपको नहीं छोडता है, ऐसा दिखलाते हैं-[जीव] हे जीव, [अत्र जगति] इस संसारमें [यानि द्रव्याणि कथितानि] जो द्रव्य कहे गये हैं, [तानि] वे सब [लोकाकाशं धृत्वा] लोकाकाशमें स्थित हैं, लोकाकाश तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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