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________________ १४० योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा २४काले भणितमस्ति-"जीवा पुग्गलकाया सह सकिरिया हवंति प य सेसा । पुग्गलकरणा जीवा खंदा खलु कालकरणेहिं॥"। पुद्गलस्कन्धानां धर्मद्रव्ये विद्यमानेऽपि जलवत् द्रव्यकालो गतेः सहकारिकारणं भवतीत्यर्थः । अत्र निश्चयनयेन निःक्रियसिद्धस्वरूपसमानं निजशुद्धात्मद्रव्यमुपादेयमिति तात्पर्यम् । तथा चोक्तं निश्चयनयेन निःक्रियजीवलक्षणम्- “यावत्क्रियाः प्रवर्तन्ते तावद् द्वैतस्य गोचराः। अद्वये निष्कले प्राप्ते निःक्रियस्य कुतः क्रिया ।।" ॥ २३ ॥ ___ अथ पञ्चास्तिकायसूचनार्थे कालद्रव्यममदेशं विहाय कस्य द्रव्यस्य कियन्तः प्रदेशा भवन्तीति कथयति धम्माधम्मु वि एक्कु जिउ ए जि असंख-पदेस । गयणु अणंत-पएसु मुणि बहु-विह पुग्गल-देस ॥ २४ ॥ धर्माधर्मी अपि एकः जीवः एतानि एव असंख्यप्रदेशानि । गगनं अनन्तप्रदेश मन्यस्व बहुविधाः पुद्गलदेशाः ॥ २४ ॥ धम्माधम्मु वि इत्यादि । धम्माधम्मु वि धर्माधर्मद्वितयमेव एकु जिउ एको विवक्षितो जीवः । ए जि एतान्येव त्रीणि द्रव्याणि असंखपदेस असंख्येयप्रदेशानि भवन्ति । गयणु गगनं अणंतपएसु अनन्तप्रदेशं मुणि मन्यख जानीहि । बहुविह बहुविधा भवन्ति । के ते । पुद्गल ये दोनों क्रियावंत हैं, और शेष चार द्रव्य अक्रियावाले हैं, चलन हलन क्रियासे रहित हैं। जीवको दूसरी गतिमें गमनका कारण कर्म है, वह पुद्गल है और पुद्गलको गमनका कारण काल है । जैसे धर्मद्रव्यके मौजूद होनेपर भी मच्छोंको गमनसहायी जल है, उसी तरह पुद्गलको धर्मद्रव्यके होनेपर भी द्रव्यकाल गमनका सहकारी कारण है । यहाँ निश्चयनयकर गमनादि क्रियासे रहित निःक्रिय सिद्धस्वरूपके समान निःक्रिय निर्द्वद्व निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, यह शास्त्रका तात्पर्य हुआ । इसी प्रकार दूसरे ग्रन्थोंमें भी निश्चयकर हलन चलनादि क्रिया रहित जीवका लक्षण कहा है-“यावत्क्रिया" इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि जब तक इस जीवके हलन चलनादि क्रिया है, गतिसे गत्यंतरको जाना है, तब तक दूसरे द्रव्यका सम्बन्ध है, जब दूसरेका सम्बन्ध मिटा, अद्वैत हुआ, तब निकल अर्थात् शरीरसे रहित निःक्रिय है, उसके हलन चलनादि क्रिया कहाँसे हो सकती हैं, अर्थात् संसारी जीवके कर्मके सम्बन्धसे गमन है, सिद्धभगवान कर्मरहित निःक्रिय हैं, उनके गमनागमन क्रिया कभी नहीं हो सकती ॥२३॥ आगे पंचास्तिकायके प्रगट करनेके लिये कालद्रव्य अप्रदेशीको छोडकर अन्य पाँच द्रव्यों से किसके कितने प्रदेश हैं, यह कहते हैं-[धर्माधौ] धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य [अपि एकः जीवः] और एक जीव [एतानि एव] इन तीनोंको ही [असंख्यप्रदेशानि] असंख्यात प्रदेशी [मन्यस्व] तू जान, [गगनं] आकाश [अनंतप्रदेशं] अनंतप्रदेशी हैं, [पुद्गलप्रदेशाः] और पुद्गलके प्रदेश [बहुविधाः] बहुत प्रकारके हैं, परमाणु तो एकप्रदेशी हैं, और स्कंध संख्यातप्रदेशी असंख्यातप्रदेशी तथा अनंतप्रदेशी भी होते हैं । भावार्थ-जगतमें धर्मद्रव्य तो एक ही है, वह असंख्यातप्रदेशी है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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