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________________ - दोहा २६ ] परमात्मप्रकाशः 46 शब्दाः सम्यगवकाशं लभन्ते, तथैकस्मिन् लोके विशिष्टावगाहनशक्तियोगात् पूर्वोक्तानन्तसंख्या जीवपुद्गला अवकाशं लभन्ते नास्ति विरोधः इति । तथा चोक्तं जीवानामवगाहनशक्तिस्वरूपं परमागमे – “ एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्यमाणदो दिट्ठा। सिद्धेहिं अनंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ।। " पुनस्तथोक्तं पुद्गलानामवगाहनशक्तिस्वरूपम् – “ ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलका एहिं सव्वदो लोगो । सुहुमेहिं बादरेहिं य णंताणंतेहिं विविहेहिं ।। " । अयमत्र भावार्थः । यद्यप्येकावगाहेन तिष्ठन्ति तथापि शुद्धनिश्चयेन जीवाः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वरूपं न त्यजन्ति पुद्गलाश्च वर्णादिस्वरूपं न त्यजन्ति शेषद्रव्याणि च स्वकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्ति ।। २५ ।। अथ जीवस्य व्यवहारेण शेषपञ्चद्रव्यकृतमुपकारं कथयति, तस्यैव जीवस्य निश्चयेन तान्येव दुःखकारणानि च कथयति — एयt दव्व देहियहँ णिय-णिय-कज्जु जणंति । च-इ-दुक्ख सहत जिय ते संसारु भमंति ॥ २६ ॥ एतानि द्रव्याणि देहिनां निजनिजकार्यं जनयन्ति । चतुर्गतिदुःखं सहमानाः जीवाः तेन संसारं भ्रमन्ति ॥ २६ ॥ एय इत्यादि । एयई एतानि दव्वहं जीवादन्यद्रव्याणि देहियहं देहिनां संसारिजीवानाम् । किं कुर्वन्ति । णियणियकज्जु जणंति निजनिजकार्यं जनयन्ति येन कारणेन निजनिजकार्यं जनयन्ति । चउगइदुक्ख सहत जिय चतुर्गतिदुःखं सहमानाः सन्तो जीवाः तें अवगाहनशक्ति है । ऐसा ही कथन परमागममें कहा है- “ एगणिगोद" इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि एक निगोदिया जीवके शरीरमें जीवद्रव्यके प्रमाणसे दिखलाये गये जितने सिद्ध हैं, उन सिद्धोंसे अनंत गुणे जीव एक निगोदियाके शरीरमें हैं, और निगोदियाका शरीर अंगुलके असंख्यातवें भाग है, सो ऐसे सूक्ष्म शरीरमें अनंत जीव समा जाते हैं, तो लोकाकाशमें समा जानेमें क्या अचम्भा है ? अनंतानंत पुद्गल लोकाकाशमें समा रहे हैं, उसकी " ओगाढ" इत्यादि गाथा है । उसका अर्थ यह है कि सब प्रकार सब जगह यह लोक पुद्गल कायोंकर अवगाढगाढ भरा है, ये पुद्गल काय अनंत हैं; अनेक प्रकारके भेदको धरते हैं, कोई सूक्ष्म हैं कोई बादर हैं । तात्पर्य यह है कि यद्यपि सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाहकर रहते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर जीव केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप अपने स्वरूपको नहीं छोड़ते हैं, पुद्गलद्रव्य अपने वर्णादि स्वरूपको नहीं छोडता और धर्मादि अन्य द्रव्य भी अपने अपने स्वरूपको नहीं छोड़ते हैं ॥ २५॥ Jain Education International १४३ आगे जीवका व्यवहारनयकर अन्य पाँचों द्रव्य उपकार करते हैं, ऐसा कहते हैं, तथा उसी जीवके निश्चयसे वे ही दुःखके कारण हैं, ऐसा कहते हैं - [ एतानि ] ये [ द्रव्याणि ] द्रव्य [ देहिनां ] जीवोके [निजनिजकार्यं] अपने अपने कार्यको [ जनयंति] उपजाते हैं, [तेन] इस कारण [ चतुर्गतिदुःखं सहमानाः जीवाः ] नरकादि चारों गतियोंके दुःखोंको सहते हुए जीव [ संसारं ] संसारमें [भ्रमंति] भटकते हैं । भावार्थ-ये द्रव्य जो जीवका उपकार करते हैं, उसको दिखलाते For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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