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________________ -दोहा १८ ] परमात्मप्रकाशः १३३ त्मभावनाच्युताः सन्तः भरतादयो निर्दोषिपरमात्मनामहत्सिद्धानां गुणस्तववस्तुस्तवरूपस्तवनादिकं कुर्वन्ति तच्चरितपुराणादिकं च समाकर्णयन्ति तदाराधकपुरुषाणामाचार्योपाध्यायसाधूनां विषयकषायदुानवञ्चनार्थं संसारस्थितिच्छेदनार्थं च दानपूजादिकं कुर्वन्ति तेन कारणेन शुभरागयोगात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति । या पुनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञा वीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्तस्य परंपरया साधकलादिति । वस्तुवृत्त्या तु तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्खाख्यं व्यवहारसम्यक्खमेवेति भावार्थः ॥ १७ ॥ अथानन्तरं सूत्रचतुष्टयेन जीवादिषड्द्रयाणां क्रमेण प्रत्येकं लक्षणं कथ्यते मुत्ति-विहणउ णाणमउ परमाणंद-सहाउ। णियमिं जोइय अप्पु मुणि णिचु णिरंजणु भाउ ।। १८ ॥ मूर्तिविहीनः ज्ञानमयः परमानन्दस्वभावः । नियमेन योगिन् आत्मानं मन्यस्व नित्यं निरञ्जनं भावम् ॥ १८ ॥ मुत्तिविहूणउ इत्यादि। मुत्तिविहूणउ अमूर्तः शुद्धात्मनो विलक्षणया स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या विहीनलात् मूर्तिविहीनः।णाणमउ क्रमकरणव्यवधानरहितेन लोकालोकमकाशकेन केवलज्ञानेन निवृत्तखात् ज्ञानमयः । परमाणंदसहाउ वीतरागपरमानन्दैकरूपसुखामृतरसास्वादेन समरसीभावपरिणतस्वरूपखात् परमानन्दस्वभावः । णियमिं शुद्धनिश्चयेन । जोइय हे योगिन् । नहीं है, तब तक असंयमी कहलाते हैं, शुद्धात्माकी अखंड भावनासे रहित हुए भरत सगर राघव पांडवादिक निर्दोष परमात्मा अरहंत सिद्धोंके गुणस्तवन वस्तुस्तवनरूप स्तोत्रादि करते हैं, और उनके चरित्र पुराणादिक सुनते हैं, तथा उनकी आज्ञाके आराधक जो महान पुरुष आचार्य उपाध्याय साधु उनको भक्तिसे आहारदानादि करते हैं, पूजा करते हैं । विषय कषायरूप खोटे ध्यानके रोकनेके लिये तथा संसारकी स्थितिके नाश करनेके लिये ऐसी शुभ क्रिया करते हैं । इसलिये शुभ रागके संबंधसे सम्यग्दृष्टि हैं और इनके निश्चयसम्यक्त्व भी कहा जा सकता है क्योंकि वीतरागचारित्रसे तन्मयी निश्चयसम्यक्त्वके परम्पराय साधकपना है । अब वास्तवमें (असलमें) विचारा जावे, तो गृहस्थ अवस्थामें इनके सरागसम्यक्त्व ही है, और जो सरागसम्यक्त्व है, वह व्यवहार ही है, ऐसा जानो ॥१७॥ आगे चार दोहोंसे छह द्रव्योंके क्रमसे हरएकके लक्षण कहते हैं-[योगिन्] हे योगी, [नियमेन] निश्चय करके [आत्मानं] तू आत्माको ऐसा [मन्यस्व] जान । कैसा है आत्मा ? [मूर्तिविहीनः] मूर्तिसे रहित है, [ज्ञानमयः] ज्ञानमयी है, [परमानंदस्वभावः] परमानंद स्वभाववाला है, [नित्यं] नित्य है, [निरंजनं] निरंजन है, [भावं] ऐसा जीवपदार्थ है ॥ भावार्थ-यह आत्मा अमूर्तिक शुद्धात्मासे भिन्न जो स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाली मूर्ति उससे रहित है, लोक अलोकका प्रकाश करनेवाले केवलज्ञानकर पूर्ण है, जोकि केवलज्ञान सब पदार्थों को एक समयमें प्रत्यक्ष जानता है, आगे पीछे नहीं जानता, वीतरागभाव परमानंदरूप अतींद्रिय सुखस्वरूप अमृतके रसके स्वादसे समरसी भावको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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