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________________ १३२ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १७जीउ इत्यादि । जीउ सचेयणु दव्वु चिदानन्दैकस्वभावो जीवश्चेतनाद्रव्यं भवति । मुणि मन्यस्व जानीहि तम् । पंच अचेयणु पञ्चाचेतनानि अण्ण जीवादन्यानि । तानि कानि । पोग्गल धम्माहम्मु णहु पुद्गलधर्माधर्मनभांसि कथंभूतानि तानि काले सहिया कालद्रव्येण सहितानि । पुनरपि कथंभूतानि । भिण्ण स्वकीयस्वकीयलक्षणेन परस्परं भिन्नानि इति । तथाहि । द्विधा सम्यक्वं भण्यते सरागवीतरागभेदेन । सरागसम्यक्त्वलक्षणं कथ्यते । प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यक्वं भण्यते, तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति तस्य विषयभूतानि षड्द्रव्याणीति । वीतरागसम्यक्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राविनाभूतं तदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्वं भवतीति बहुधा व्याख्यातं पूर्व भवद्भिः, इदानीं पुनः वीतरागचारित्राविनाभूतं निश्चयसम्यक्त्वं व्याख्यातमिति पूर्वापरविरोधः कस्मादिति चेत् । निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्रं गृहस्थावस्थायां तीर्थकरपरमदेवभरतसगररामपाण्डवादीनां विद्यते, न च तेषां वीतरागचारित्रमस्तीति परस्परविरोधः, अस्ति चेत्तर्हि तेषामसंयतवं कथमिति पूर्वपक्षः। तत्र परिहारमाह । तेषां शुद्धात्मोपादेयभावनारूपं निश्चयसम्यक्वं विद्यते परं किंतु चारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभङ्गो भवतीति तेन कारणेनासंयता वा भण्यन्ते । शुद्धाऐसा [मन्यस्व] जान, [अन्यानि] और बाकी [पुद्गलः धर्माधर्मी] पुद्गल धर्म अधर्म [नभः] आकाश [कालेन सहिता] और काल सहित जो [पंच] पाँच हैं, वे [अचेतनानि] अचेतन हैं, और [अन्यानि] जीवसे भिन्न हैं, तथा ये सब [भिन्नानि] अपने-अपने लक्षणोंसे आपसमें भिन्न [जुदा जुदा] है, काल सहित छह द्रव्य हैं, कालके बिना पाँच अस्तिकाय हैं । भावार्थ-सम्यक्त्व दो प्रकारका है. एक सरागसम्यक्त्व दूसरा वीतरागसम्यक्त्व । सरागसम्यक्त्वका लक्षण कहते हैं-प्रशम अर्थात् शान्तिपना, संवेग अर्थात् जिनधर्मकी रुचि तथा जगतसे अरुचि, अनुकंपा परजीवोंको दुःखी देखकर दया भाव और आस्तिक्य अर्थात् देव गुरु धर्मकी तथा छह द्रव्योंकी श्रद्धा इन चारोंका होना वह व्यवहारसम्यक्त्वरूप सरागसम्यक्त्व है, और वीतरागसम्यक्त्व जो निश्चयसम्यक्त्व वह निजशुद्धात्मानुभूतिरूप वीतरागचारित्रसे तन्मयी है । यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया-हे प्रभो, निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्वका कथन पहले तुमने अनेक बार किया, फिर अब वीतरागचारित्रसे तन्मयी निश्चयसम्यक्त्व है, यह व्याख्यान करते हैं, सो यह तो पूर्वापर विरोध है । क्योंकि जो निज शुद्धात्मा ही उपादेय हैं, ऐसी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व तो गृहस्थ अवस्था में तीर्थंकर परमदेव भरत चक्रवर्ती, सगर चक्रवर्ती और राम पांडवादि बडे बडे पुरुषोंके रहता है, लेकिन उनके वीतरागचारित्र नहीं है । यही परस्पर विरोध है । यदि उनके वीतरागचारित्र माना जावे, तो गृहस्थपना क्यों कहा ? यह प्रश्न किया । उसका उत्तर श्रीगुरु देते हैं-उन महान् (बडे) पुरुषोंके शुद्धात्मा उपादेय हैं ऐसी भावनारूप निश्चयसम्यक्त्व तो है, परन्तु चारित्रमोहके उदयसे स्थिरता नहीं है । जब तक महाव्रतका उदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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