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-दोहा ९] परमात्मप्रकाशः
१२३ विषयानुभवरूपं किमपि नास्ति तेन कारणेन हे प्रभाकरभट्ट वीतरागनिर्विकल्पपरमसामायिके स्थिखा निजशुद्धात्मस्वभावं ध्याय समिति । अत्राह प्रभाकरभट्टः हे भगवन्नतीन्द्रियमोक्षसुखं निरन्तरं वर्ण्यते भवद्भिस्तच्च न ज्ञायते जनः । भगवानाह हे प्रभाकरभट्ट कोऽपि पुरुषो निर्व्याकुलचित्तः प्रस्तावे पञ्चन्द्रियभोगसेवारहितस्तिष्ठति स केनापि देवदत्तेन पृष्टः सुखेन स्थितो भवान् । तेनोक्तं सुखमस्तीति तत्सुखमात्मोत्थम् । कस्मादिति चेत् । तत्काले स्त्रीसेवादिस्पर्शविषयो नास्ति भोजनादिजिहेन्द्रियविषयो नास्ति विशिष्टरूपगन्धमाल्यादिघ्राणेन्द्रियविषयो नास्ति दिव्यस्त्रीरूपावलोकनादिलोचनविषयो नास्ति श्रवणरमणीयगीतवाद्यादिशब्दविषयोऽपि नास्तीति तस्मात् ज्ञायते तत्सुखमात्मोत्थमिति । किं च । एकदेशविषयव्यापाररहितानां तदेकदेशेनात्मोत्थमुखमुपलभ्यते वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानरतानां पुनर्निरवशेषपश्चेन्द्रियविषयमानसविकल्पजालनिरोधे सति विशेषेणोपलभ्यते । इदं तावत् स्वसंवेदनप्रत्यक्षगम्यं सिद्धात्मनां च सुखं पुनरनुमानगम्यम् । तथाहि । मुक्तात्मनां शरीरेन्द्रियव्यापाराभावेऽपि सुखमस्तीति साध्यम् । कस्माद्धेतोः इदानीं पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिस्थानां परमयोगिनां पञ्चेन्द्रियविषयमोक्षसुखका वर्णन किया है, सो ये जगतके प्राणी अतींद्रिय सुखको जानते ही नहीं हैं, इन्द्रिय सुखको ही सुख मानते हैं । तब गुरुने कहा कि हे प्रभाकरभट्ट, कोई एक पुरुष जिसका चित्त व्याकुलता रहित है, और पंचेन्द्रियके भोगोंसे रहित अकेला स्थित है, उस समय किसी पुरुषने पूछा कि तुम सुखी हो ? तब उसने कहा कि सुखसे तिष्ठ रहे हैं, उस समयपर विषय-सेवनादि सुख तो है ही नहीं, उसने यह क्यों कहा कि हम सुखी हैं ? इसलिए यह मालूम होता है कि सुख नाम व्याकुलता रहितका है, सुखका मूल निर्व्याकुलपना है, वह निर्व्याकुल अवस्था आत्मामें ही है, विषय-सेवनमें नहीं । भोजनादि जिह्वा इन्द्रियका विषय भी उस समय नहीं है, स्त्रीसेवनादि स्पर्शका विषय नहीं है, और गंधमाल्यादिक नाकका विषय भी नहीं है, दिव्य स्त्रियोंका रूप अवलोकनादि नेत्रका विषय भी नहीं, और कानोंका मनोज्ञ गीत वादित्रादि शब्द विषय भी नहीं हैं, इसलिये जानते हैं कि सुख आत्मामें ही है । ऐसा तू निश्चय कर, कि जो एकोदेश विषय-व्यापारसे रहित हैं, उनके एकोदेश थिरताका सुख है, तो वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानियोंके समस्त पंच इन्द्रियोंके विषय और मनके विकल्प-जालोंकी रूकावट होनेपर विशेषतासे निर्व्याकुल सुख उपजता है । इसलिये ये दो बातें तो प्रत्यक्ष ही दीख पडती हैं । जो पुरुष नीरोग और चिंता रहित हैं, उनके विषय-सामग्रीके विना ही सुख भासता है, और जो महामुनि शुद्धोपयोग अवस्थामें ध्यानारूढ हैं, उनके निर्व्याकुलता प्रगट ही दीख रही है, वे इन्द्रादिक देवोंसे भी अधिक सुखी हैं । इस कारण जब संसार अवस्थामें ही सुखका मूल निर्व्याकुलता दीखती है, तो सिद्धोंके सुखकी बात ही क्या है ? यद्यपि वे सिद्ध दृष्टिगोचर नहीं हैं, तो भी अनुमान कर ऐसा जाना जाता है, कि सिद्धोंके भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म नहीं, तथा विषयोंकी प्रवृत्ति नहीं है, कोई भी विकल्प-जाल नहीं है, केवल अतींद्रिय आत्मिक सुख ही है, वही सुख उपादेय है, अन्य सुख सब दुःखरूप ही हैं । जो
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