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________________ योगीन्दुदेवविरचितः शुद्धबुद्धैकस्वभावनिजात्मद्रव्यसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नवीतरागसहजानन्दैकसुखरसानुभवेन पूर्णकलशवत् भरितावस्थे निरञ्जनशब्दाभिधेयपरमात्मध्याने स्थित्वा मोक्षमेव ध्यायन्ति । अयमत्र भावार्थः । यद्यपि व्यवहारेण सविकल्पावस्थायां वीतरागसर्वज्ञस्वरूपं तत्प्रतिबिम्बानि तन्मन्त्राक्षराणि तदाराधकपुरुषाश्च ध्येया भवन्ति तथापि वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिकाले निजशुद्धात्मैव ध्येय इति ॥ ८ ॥ अथ भुवनत्रयेsपि मोक्षं मुक्त्वा अन्यत्परमसुखकारणं नास्तीति निश्चिनोति— तिहुयणि जीवहँ अस्थि णवि सोक्खहँ कारणु कोइ । मुक्खु मुविणु एक पर तेणवि चितहि सोइ ॥ ९ ॥ त्रिभुवने जीवानां अस्ति नैव सुखस्य कारणं किमपि । १२२ मोक्ष मुक्त्वा एकं परं तेनैव चिन्तय तमेव ॥ ९ ॥ 1 तिहुयणि इत्यादि । तिहुयणि त्रिभुवने जीवहं जीवानां अस्थि वि अस्ति नैव । किं नास्ति । सोक्खहं कारणु सुखस्य कारणम् । कोइ किमपि वस्तु । किं कृत्वा । मुक्खु मुएविणु एक्कु मोक्षं मुक्त्वैकं पर नियमेन तेणवि तेनैव कारणेन चितहि चिन्तय सोह तमेव मोक्षमिति । तथाहि । त्रिभुवनेऽपि मोक्षं मुक्त्वा निरन्तरातिशयसुखकारणमन्यत्पञ्चेन्द्रियजो अभेदरत्नत्रयमय समाधिकर उत्पन्न वीतराग सहजानंद अतीन्द्रियसुखरस उसके अनुभवपूर्ण कलशकी तरह भरे हुए निरंतर निराकार निजस्वरूप परमात्माके ध्यानमें स्थिर होकर मुक्त होते हैं । कैसा वह ध्यान है, कि ख्याति (प्रसिद्धि) पूजा ( अपनी महिमा) और धनादिकका लाभ इत्यादि समस्त विकल्प - जालोंसे रहित है । यहाँ केवल आत्मध्यानको ही मोक्षमार्ग बतलाया है, और अपना स्वरूप ही ध्यावने योग्य है । तात्पर्य यह है कि यद्यपि व्यवहारनयकर प्रथम अवस्था में वीतरागसर्वज्ञका स्वरूप अथवा वीतरागके नाममंत्रके अक्षर अथवा वीतरागके सेवक महामुनि ध्यावने योग्य हैं, तो भी वीतराग निर्विकल्प तीन गुप्तिरूप परमसमाधिके समय अपना शुद्ध आत्मा ही ध्यान करने योग्य है, अन्य कोई भी दूसरा पदार्थ पूर्ण अवस्थामें ध्यावने योग्य नहीं है ॥८॥ [ अ० २, दोहा ९ अब तीन लोकमें मोक्षके सिवाय अन्य कोई भी परमसुखका कारण नहीं है, ऐसा निश्चय करते हैं - [ त्रिभुवने] तीन लोकमें [ जीवानां ] जीवोंको [ मोक्षं मुक्त्वा ] मोक्षके सिवाय [किमपि ] कोई भी वस्तु [सुखस्य कारणं ] सुखका कारण [ नैव ] नहीं [ अस्ति ] है, एक सुखका कारण मोक्ष ही है [तेन] इस कारण तू [ परं एकं तं एव ] नियमसे एक मोक्षका ही [ विचिंतय ] चितवन कर जिसे कि महामुनि भी चिंतवन करते हैं । भावार्थ - श्रीयोगींद्राचार्य प्रभाकरभट्टसे कहते हैं कि वत्स; मोक्षके सिवाय अन्य सुखका कारण नहीं है, और आत्म-ध्यानके सिवाय अन्य मोक्षका कारण नहीं है, इसलिये तू वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें ठहरकर निज शुद्धात्मस्वभावको ही ध्याव | यह श्रीगुरु आज्ञा की । तब प्रभाकरभट्टने विनती की कि हे भगवन्; तुमने निरंतर अतींद्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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