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________________ १२४ योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० २, दोहा १० व्यापाराभावेऽपि स्वात्मोत्थवीतरागपरमानन्दसुखोपलब्धिरिति । अत्रेत्थंभूतं सुखमेवोपादेयमिति भावार्थः । तथागमे चोक्तमात्मोत्थमतीन्द्रियसुखम् – “अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं । अव्युच्छिष्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ॥ 99 118 11 अथ यस्मिन् मोक्षे पूर्वोक्तमतीन्द्रियसुखमस्ति तस्य मोक्षस्य स्वरूपं कथयतिजीवहँ सो पर मोक्खु मुणि जो परमप्पय-लाहु | कम्म-कलंक - विमुक्का णाणिय बोल्लहि साहू ॥ १० ॥ जीवानां तं परं मोक्ष मन्यस्व यः परमात्मलाभः । कर्मकलङ्कविमुक्तानां ज्ञानिनः ब्रुवन्ति साधवः ॥ १०॥ जीवहं इत्यादि । जीवहं जीवानां सो तं परं मोक्खु मोक्षं मुणि मन्यस्व जानीहि हे प्रभाकरभट्ट । तं कम् । जो परमप्पयलाहु यः परमात्मलाभः । इत्थंभूतो मोक्षः केषां भवति । कम्मकलंक विमुक्काहं ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मकलङ्कविमुक्तानाम् । इत्थंभूतं मोक्षं के ब्रुवन्ति । oाणि बोलहिं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानिनो ब्रुवन्ति । ते के। साहू साधवः इति । तथाहि । केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारभूतस्य हि परमात्मलाभो मोक्षो भवतीति । स च केषाम् । पुत्रकलत्रममत्वस्वरूपप्रभृतिसमस्तविकल्परहितध्यानेन भावकर्मद्रव्यकर्मकलङ्करहितानां भव्यानां भवतीति ज्ञानिनः कथयन्ति । अत्रायमेव मोक्षः पूर्वोक्तस्यानन्तसुखस्योपादेयभूतस्य कारणत्वादुपादेय इति भावार्थः || १० || एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गादिप्रतिपादकद्वितीयमहाचारों गतियोंकी पर्यायें हैं, उनमें कदापि सुख नहीं है । सुख तो सिद्धोंके है, या महामुनीश्वरोंके सुखका लेशमात्र देखा जाता है, दूसरेके जगतकी विषय-वासनाओंमें सुख नहीं है । ऐसा ही कथन श्रीप्रवचनसारमें किया है- 'अइसय' इत्यादि । सारांश यह है, कि जो शुद्धोपयोगकर प्रसिद्ध ऐसे श्रीसिद्धपरमेष्ठी हैं, उनके अतींद्रिय सुख है, वह सर्वोत्कृष्ट है, और आत्मजनित है, तथा विषयवासनासे रहित है, अनुपम है, जिसके समान सुख तीन लोकमें भी नहीं है, जिसका पार नहीं ऐसा बाधारहित सुख सिद्धोंके है ||९|| आगे जिस मोक्षमें ऐसा अतींद्रियसुख है, उस मोक्षका स्वरूप कहते हैं - हे प्रभाकरभट्ट, जो [कर्मकलंकविमुक्तानां जीवानां ] कर्मरूपी कलंकसे रहित जीवोंको [ यः परमात्मलाभः ] जो परमात्माकी प्राप्ति है [ तं परं ] उसीको नियमसे तू [ मोक्षं मन्यस्व ] मोक्ष जान, ऐसा [ ज्ञानिनः साधवः] ज्ञानवान् मुनिराज [ब्रुवंति ] कहते हैं, रत्नत्रयके योगसे मोक्षका साधन करते हैं, इससे उनका नाम साधु है || भावार्थ - केवलज्ञानादि अनंतगुण प्रगटरूप जो कार्यसमयसार अर्थात् शुद्ध परमात्माका लाभ वह मोक्ष है, यह मोक्ष भव्यजीवोंके ही होता है । भव्य कैसे हैं कि पुत्र कलत्रादि परवस्तुओंके ममत्वको आदि लेकर सब विकल्पोंसे रहित जो आत्मध्यान उससे जिन्होंने भावकर्म और द्रव्यकर्मरूपी कलंक क्षय किये हैं, ऐसे जीवोंके निर्वाण होता है, ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं । यहाँ पर अनंत सुखका कारण होनेसे मोक्ष ही उपादेय है ||१०|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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