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________________ ११२ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा १२३मलरहिते । केषां मनसि । णाणियहं ज्ञानिनां णिवसइ निवसति । कोऽसौ । देउ देवः आराध्यः । किविशिष्टः । अणाइ अनादिः । क इव कुत्र । हंसा सरवरि लीणु जिम हंसः सरोवरे लीनो यथा हे प्रभाकरभट्ट महु एहउ पडिहाइ ममैवं प्रतिभातीति । तथाहि । पूर्वसूत्रकथितेन चित्ताकुलोत्पादकेन स्त्रीरूपावलोकनसेवनचिन्तादिसमुत्पनेन रागादिकल्लोलमालाजालेन रहिते निजशुद्धात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानसहजसमुत्पन्नवीतरागपरमसुखसुधारसस्वरूपेण निर्मलनीरेण पूर्णे वीतरागस्वसंवेदनजनितमानससरोवरे परमात्मा लीनस्तिष्ठति । कथंभूतः। निर्मलगुणसादृश्येन हंस इव हंसपक्षी इव । कुत्र प्रसिद्धः। सरोवरे। हंस इवेत्यभिमायो भगवतां श्रीयोगीन्द्रदेवानाम् ॥ १२२॥ उक्तं च देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति । अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति ॥ १२३ ॥ देवः न देवकुले नैव शिलायां नैव लेप्ये नैव चित्रे ।। अक्षयः निरञ्जनः ज्ञानमयः शिवः संस्थितः समचित्ते ॥ १२३ ॥ देउ इत्यादि । देउ देवः परमाराध्यः ण नास्ति । कस्मिन् कस्मिन् नास्ति । देउले देवकुले देवतागृहे णवि सिलए नैव शिलाप्रतिमायां, णवि लिप्पइ नैव लेपपतिमायां, णवि चित्ति नैव चित्रप्रतिमायाम् । तर्हि क तिष्ठति । निश्चयेन अखउ अक्षयः णिरंजणु कर्माञ्जनरहितः । पुनरपि किंविशिष्टः । णाणमउ ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निवृतः सिउ शिवशब्दवाच्यो उत्पन्न हुए रागादितरंगोंके समूह हैं, उनकर रहित निज शुद्धात्मद्रव्यका सम्यक् श्रद्धान स्वाभाविकज्ञान उससे उत्पन्न वीतराग परमसुखरूप अमृतरस उस स्वरूप निर्मल नीरसे भरे हुए ज्ञानियोंके मानसरोवरमें परमात्मदेवरूपी हंस निरंतर रहता है । वह आत्मदेव निर्मल गुणोंकी उज्ज्वलताकर हंसके समान है । जैसे हंसोंका निवास स्थान मानसरोवर है, वैसे ब्रह्मका निवासस्थान ज्ञानियोंका निर्मल चित्त है । ऐसा श्रीयोगींद्रदेवका अभिप्राय है ।।१२२॥ ___ आगे इसी बातको दृढ करते हैं-[देवः] आत्मदेव [देवकुले] देवालयमें (मंदिरमें) [न] नहीं है, [शिलायां नैव] पाषाणकी प्रतिमामें भी नहीं है, [लेपे नैव] लेपमें भी नहीं है, [चित्रे नैव] चित्रामकी मूर्तिमें भी नहीं है । लेप और चित्रामकी मूर्ति लौकिकजन बनाते हैं, पंडितजन तो धातु पाषाणकी ही प्रतिमा मानते हैं, सो लौकिक दृष्टांतके लिये दोहामें लेप चित्रामका भी नाम आ गया । वह देव किसी जगह नहीं रहता । वह देव [अक्षयः] अविनाशी है, [निरंजनः] कर्माञ्जनसे रहित है, [ज्ञानमयः] केवलज्ञानसे पूर्ण है, [शिवः] ऐसा निज परमात्मा [समचित्ते संस्थितः] समभावमें तिष्ठ रहा है, अर्थात् समभावको परिणत हुए साधुओंके मनमें विराज रहा है, अन्य जगह नहीं है ।। भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनयकर धर्मकी प्रवृत्तिके लिये स्थापनारूप अरहंतदेव देवालयमें तिष्ठते हैं, धातु पाषाणकी प्रतिमाको देव कहते हैं तो भी निश्चयनयकर शत्रु मित्र सुख दुःख जीवित मरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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