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________________ परमात्मप्रकाशः -दोहा १२३*२] ११३ निजपरमात्मा । एवंगुणविशिष्टः परमात्मा देव इति । संठिउ संस्थितः समचित्ति समभावे समभावपरिणतमनसि इति । तपथा। यद्यपि व्यवहारेण धर्मवर्तनानिमित्तं स्थापनारूपेण पूर्वोक्तगुणलक्षणो देवो देवगृहादौ तिष्ठति तथापि निश्रयेन भत्रुमित्रसुखदुःखजीवितमरणादिसमतारूपे वीतरागसहजानन्दैकरूपपरमात्मतत्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभूतिरूपाभेदरनत्रयात्मकसमचित्ते समशब्दवाच्यः परमात्मा तिष्ठतीति भावार्थः॥ तथा चोक्तं समचित्तपरिणतश्रमणलक्षणम्" समसत्तुबंधुवग्गो सममुहदुक्खो पसंसर्णिदसमो। समलोहफंचणो वि य जीवियमरणे समो समणो ॥"॥ १२३ ॥ इत्येकत्रिंशत्सूत्रैथलिकास्थलं गतम् । अथ स्थलसंख्यावाचं प्रक्षेपकद्वयं कथ्यते मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स । बीहि वि समरसि-हवाहं पुज चडावउँ कस्स ॥ १२३२२ ॥ मनः मिलितं परमेश्वरस्य परमेश्वरः अपि मनसः । द्वयोरपि समरसीभूतयोः पूजा समारोपयामि कस्य ॥ १२३*२ ॥ मणु इत्यादि । मणु मनो विकल्परूपं मिलियउ मिलितं तन्मयं जातम् । कस्य संबन्धिखेन । परमेसरहं परमेश्वरस्य परमेसरु विमणस्स परमेश्वरोऽपि मनःसंबन्धिवेन लीनो जातः पीहि वि समरसिहूवाहं एवं द्वयोरपि समरसीभूतयोः पुज्ज पूजां चडावउं समारोपयामि । कस्स कस्य निश्चयनयेन न कस्यापीति । अयमत्र भावार्थः। यद्यपि व्यवहारनयेन गृहस्थावस्थायां विषयकषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थ धर्मवर्धनार्थ च पूजाभिषेकदानादिव्यवहारोऽस्ति तथापि वीतरागजिसमें समान हैं, तथा वीतराग सहजानन्दरूप परमात्मतत्त्वका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमें लीन ऐसे ज्ञानियोंके सम चित्तमें परमात्मा तिष्ठता है । ऐसा ही अन्य जगह भी समचित्तको परिणत हुए मुनियोंका लक्षण कहा है-'समसत्तु' इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि जिसके सुख दुःख समान हैं, शत्रु मित्रोंका वर्ग समान हैं, प्रशंसा निंदा समान हैं, पत्थर और सोना समान है, और जीवन मरण जिसके समान हैं, ऐसा समभावका धारण करनेवाला मुनि होता है । अर्थात् ऐसे समभावके धारक शांतचित्त योगीश्वरोके चित्तमें चिदानंद देव तिष्ठता है ॥१२३॥ ___ इस प्रकार इकतीस दोहा-सूत्रोंका चूलिका स्थल कहा । चूलिका नाम अंतका है, सो पहले स्थलका अंत यहाँतक हुआ । आगे स्थलकी संख्याके सिवाय दो प्रक्षेपक दोहा कहते हैं-[मनः] विकल्परूप मन [परमेश्वरस्य मिलितं] भगवान आत्मारामसे मिल गया, तन्मयी हो गया [परमेश्वरः अपि] और परमेश्वर भी [मनसः] मनसे मिल गया तो [द्वयोः अपि] दोनोंका ही [समरसीभूतयोः] समरस (आपसमें एकमेक) होनेपर [कस्य] किसकी अब मैं [पूजां समारोपयामि] पूजा करूँ ? अर्थात् निश्चयनयकर किसीको पूजना, सामग्री चढाना नहीं रहा । भावार्थ-जब तक मन भगवानसे नहीं मिला था, तब तक पूजा करता था, और जब मन प्रभुसे मिल गया, तब पूजाका प्रयोजन नहीं है । यद्यपि व्यवहारनयकर गृहस्थ-अवस्थामें विषय कषायरूप खोटे ध्यानके पर०१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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